वो मेरे कत्ल का, सामान लिए फिरता है।
सिर्फ हिंदू, या मुसलमान किए फिरता है।
जवानियों में, वो ढूँढे हसीन कातिल को ।
अपने ही कत्ल का, अरमान लिए फिरता है।
भूंखे रहकरके भी, वो जी रहा महँगाई में,
जिंदगी पर भी वो, एहसान किए फिरता है।
उनकी हसरत है कि, साँसों पे भी पाबंदी हो।
दाल खाओगे या मुर्गा, ये फरमान लिए फिरता है।
वोट के ही लिए, फैली है उसकी झोली,
कभी अल्ला, कभी भगवान, किए फिरता है।
गरीबी बेंचकर, ‘जानी’, अमीर होता है।
सिर पे मुद्दों कि वो दुकान लिए फिरता है।