वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्यों के पूर्वज बंदर थे। लेकिन बहुत से मनुष्यों की हरकतें देखकर लगता है कि आदमी ही बंदरों का पूर्वज रहा होगा। हालांकि बंदरों का राजनीति, समाज और साहित्य में बहुत ही महत्व रहा है। बंदरों के ऊपर बने मुहावरे इसका प्रमाण हैं। बन्दर के हाथ में उस्तरा। बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद। बन्दर बाँट। नकलची बन्दर। नाचे कूदे बान्दरी खीर खाय फकीर। तबेले की बला, बन्दर के सिर। बन्दर घुड़की आदि मुहावरे, बंदरो के महत्व और आदमियों से उनके संबध को दर्शाती हैं।
भारतीय इतिहास के इतिहास में, बंदरों की एक एसी तिकड़ी मौजूद है, जो समय और विचारधारा से आगे निकलकर हमारे देश के सबसे सम्मानित राजनीतिक और सामाजिक प्रतीक बन गए हैं। ये बुद्धिमान तिकड़ी, अपने अनुपम सिद्धांतों के साथ, हमारे लोकतंत्र की लगातार बदलती गतिशीलता के बावजूद, हमारे राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य पर अपना दबदबा बनाए हुए हैं। हम बात कर रहे हैं महात्मा गांधी के तीन बुद्धिमान बंदरों के बारे में, जो अपनी मार्गदर्शक नीतियों और सिद्धांतों के कारण, वर्तमान भारतीय परिदृश्य में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
आइये देखते हैं कि कैसे ये तीन बंदर वर्तमान भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य के गुमनाम नायक बन गए हैं। पहले बंदर से शुरू करते हैं, जिसका सिद्धान्त था, "बुरा मत देखो"। आज के भारत में, यह बंदर सभी संवेदनशील मुद्दों पर हमारी सरकार के दृष्टिकोण का शुभंकर बन गया है। ऐसा लगता है कि जब गरीबी, बेरोजगारी या सामाजिक असमानता जैसी समस्याओं की बात आती है, तो सरकार का रुख बस अपनी आँखें बंद करके "बुरा मत देखो" का होता है, कि ये मुद्दे मौजूद ही नहीं हैं। गरीबी? नहीं, इसे नहीं देख सकते। बेरोजगारी? क्षमा करें, उससे भी अनभिज्ञ हैं। महंगाई? ये कैसी दिखती है? यह बंदर सरकार के चयनात्मक अंधेपन का प्रतीक बन गया है, जो आसानी से उन्हें जवाबदेही से बचने में मदद करता है।
केवल सरकार ही नहीं जनता भी "बुरा मत देखो" से पीड़ित है। अब वो जनता या नागरिक नहीं बल्कि इस अंधेपन के कारण प्रजा और भक्त बन गई है। उसने अपने नेताओं को भगवान बना लिया है और उनके सभी भ्रष्ट कारनामों, घोटालों और अनैतिक कर्मों पर आंखें मूंदने की कला में महारत हासिल कर ली है। जब भी कोई 'उनका' अपना नेता गलत करते हुए रंगे हाथों पकड़ा जाता है, चाहे वह नकदी से भरा सूटकेस हो या फर्जी जमीन सौदों का ढेर हो। सांप्रदायिकता भरे भाषण हों, भाई-भतीजावाद हो या पूंजीपतियों से साठगांठ। जनता एसी सभी वास्तविकताओं पर अपनी नजरें चुराने में माहिर हो गयी है।
जनता अपनी आंखें बंद करके बेपरवाह कंधे उचकाते हुए, "बुरा मत देखो" जारी रखती है और देश में महंगाई, बेगारी, गरीबी, घोटाले, दंगे, लिंचिंग आदि आराम से होते रहते हैं। तो यह "बुरा मत देखो" वाला बंदर, जनता-नेता के उस राजनीतिक भोलेपन का प्रतीक है, जिसने आजादी के बाद से हमारे देश को परेशान कर रखा है। "मुझे कुछ नहीं दिखता", अनगिनत राजनेताओं का अनौपचारिक नारा बन गया है, जो असुविधाजनक सच्चाइयों का सामना होने पर दूसरी तरफ देखना पसंद करते हैं। भारतीय राजनीति के भव्य रंगमंच में, आंखें मूंद लेने की कला इस हद तक सिद्ध हो चुकी है कि यह व्यावहारिक रूप से एक ओलंपिक खेल जैसा बन गया है।
दूसरे बंदर को देखते हैं, जिसका सिद्धान्त है, "बुरा मत सुनो"। ऐसे देश में जहां असहमति को खतरे के रूप में देखा जा रहा है, इस बंदर को एक प्रतिष्ठित दर्जा मिल गया है। आप सोचते होंगे कि लोकतंत्र में, नागरिकों की चिंताओं, मुद्दों को सुनना सर्वोच्च प्राथमिकता होती होगी। लेकिन हमारे नेताओं ने लोगों की चीखों को सुनकर, उनके मुद्दे सुनकर, खुद को बहरा कर लेने की कला में महारत हासिल कर ली है।
विपक्ष द्वारा उठाई गई असहमति, आलोचना या वैध चिंता हो, छात्रों का विरोध प्रदर्शन हो, किसान आंदोलन हो, तर्क की आवाज हो या हाशिए पर रहने वाले समुदायों की आवाज़। इन सब पर सरकार, बस "बुरा मत सुनो" का आध्यात्मिक दर्शन अपनाती है। इस "बुरा मत सुनो" की भावना में, हमारे नेताओं के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे ऐसी किसी भी बात को न सुनें, किसी एसे सवाल या मुद्दे को न सुनें, जो उनके एजेंडे के अनुरूप नहीं हो या जो असहज करता हो। इस सिद्धान्त को मानने वाले, कट्टरता और सांप्रदायिकता की कानफोडू बहसों से अगर राजनीतिक फायदा हो रहा हो, तो इसे सुविधाजनक तरीके से अनसुना कर देते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के सवालों पर, "बुरा मत सुनो" का जाप करते हैं।
तीसरा और अंतिम बंदर भी कम नहीं है, जिसका सिद्धान्त है, "बुरा मत बोलो"। फर्जी खबरों और विभाजनकारी बयानबाजी के युग में, इस बंदर को हमारे राजनेताओं ने ऊंचे स्थान पर बिठा दिया है। जब नफरती-हिंसा भड़काने वाले भाषण या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की निंदा करने की बात आती है तो वे मौन व्रत धारण कर लेते हैं। और बड़ी सहजता से एकता और सद्भाव का उपदेश देते हैं। यह बंदर दोगले भाषणबाजी की कला का प्रतीक है, जहां सारे बुरे काम करते हुये, अच्छी बातें बोलने के लिए शब्दों को सावधानीपूर्वक चुना जाता है। अन्याय, उत्पीड़न और हिंसा के सामने चुप रहने को, "बुरा मत बोलो" की कला आदर्श मानते हैं।
हमारे राजनीतिक नेताओं ने असहमति की आवाज़ों को (जो उनके लिए बुरी बातें हों), चुप कराने की कला में प्रवीणता हासिल कर ली है। चाहे वह कानूनी तरीकों से हो या ऑनलाइन ट्रोल्स की सेना को तैनात करके। वे "बुरा मत बोलो" बंदर के नक्शेकदम पर चलते हैं, किसी भी आलोचना, असहमति या असुविधाजनक सच्चाई को "बुरा मत बोलो" के नाम पर दबाने का विकल्प चुनते हैं, जो उनके नाजुक अहंकार को खतरे में डाल सकता है। "बुरा मत बोलो" वाला बंदर बहुत महत्वपूर्ण है। यह बंदर भारतीय राजनीति में व्याप्त मौन संस्कृति का प्रतीक है। जब उनके कार्यों या राष्ट्र की स्थिति के बारे में सवालों का सामना होता है, तो हमारे राजनेता टाल-मटोल कर जाते हैं और सच न बोलने को, "बुरा मत बोलो" के आदर्श से कवर करने लगते हैं। अस्पष्ट बयानों, अधूरी और द्विअर्थी बातों और सरासर झूठ के पीछे छिप कर "बुरा मत बोलो" का झण्डा बुलंद करते हैं। आजकल मीडिया राजनेताओं को जवाबदेह ठहराए बिना, "बुरा मत बोलो" के ब्राण्ड अम्बेस्डर बना हुआ है।
हालाँकि ये बंदर मूल रूप से आत्म-अनुशासन और नैतिकता के प्रतीक हैं, लेकिन अब वे इनकार, दमन और पाखंड की दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये तीन बंदर वर्तमान भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में अपरिहार्य हो गए हैं, जो राजनेताओं और सभी वर्गों के नेताओं के लिए रोल मॉडल के रूप में काम कर रहे हैं। अराजकता और भ्रष्टाचार की दुनिया में, हमारे देश को परेशान करने वाली समस्याओं के प्रति आंखें मूंद लेना, अनसुना कर देना और मुंह बंद कर लेना ही सुविधाजनक होता है। आख़िरकार, नैतिक दुविधाओं से परेशान क्यों हों? जब आप बस इन बुद्धिमान बंदरों के उदाहरण का अनुसरण कर आराम से रह सकते हैं।
गांधीजी के तीन बंदरों को भारतीय राजनीति की दुनिया में नया जीवन मिला है, जहां वे फलते-फूलते और समृद्ध होते जा रहे हैं। राजनीतिक सुविधा के इस युग में, वे हमारे समय के सच्चे प्रतीक बन गए हैं, आज के भारतीय राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में, ये तीन बंदर उन लोगों के लिए अपरिहार्य प्रतीक बन गए हैं जो पाखंड और धोखे पर पलते हैं। वे उन लोगों के लिए कवर प्रदान करते हैं जो हमारे देश को परेशान करने वाले असंख्य मुद्दों पर आंखें मूंदना, बहरा होना और मुंह बंद करना चुनते हैं। जब हम महात्मा गांधी के सिद्धांतों का जश्न मनाते हैं, यह विचार करने योग्य है कि क्या हमने उनके संदेश को अपने कार्यों से व्यंग्य में बदल दिया है?