लोग मरते रहे, छटपटाते रहे।
अपने-अपने मसीहा, बुलाते रहे।
वक्त ही ना मिला, उन मसीहाओं को,
और दरिंदे तो, लाशें बिछाते रहे।
ना पुलिस ने किया काम, ना कोर्ट ने,
लोग दंगों में जानें, गंवाते रहे।
धर्म की खाल में, जो छुपे जानवर,
मौका पाते ही बाहर, वो आते रहे।
मारकर एक-दूजे को, हमवतनों को
अपने अपने धरम, सब बचाते रहे।
पहले रोका नहीं, दंगे होने दिया,
बाद में बस, कमीशन बिठाते रहे।
भोले भालों को, दंगाई- वहशी बना,
वो फसल वोटों की, लहलहाते रहे।
जिसको सबने चुना, था मसीहा नया,
मौत पे, वो भी बस, मुस्कुराते रहे।
झूठे दावों, बयानों, कुकर्मों से सब,
दाग़ चेहरे के अपने, छुपाते रहे।
पास आया न कोई, तसल्ली ना दी,
घर में बैठे सभी, दुःख जताते रहे।
मांग लें रोजी रोटी, ना सरकार से,
गाय, मंदिर औ मस्जिद, दिखाते रहे।
जिसको समझे दवा, लोग हरदर्द की,
दर्द भी, रोग भी, वो बढ़ाते रहे।
इसकी गलती रही, उसकी गलती रही,
एक-दूजे पे इल्जाम, लगाते रहे।
लोग मरते रहे, भूंख- बेगारी से,
सत्ता में तो सभी, आते जाते रहे।
“जानी” मुद्दों पे, लड़ना जिन्हें चाहिए,
धर्म के नाम पर, जाँ गंवाते रहे।
भ्रष्ट सिस्टम की सब, चोट खाते रहे।
लोग मरते रहे, छटपटाते रहे।