ये कैसी रात है, दिखता नहीं सवेरा है।
जहां-जहां भी नजर जाती है अंधेरा है।
जहां थी प्यार की, आबाद अभी तक बस्ती
वहीं सियासतों का आज लगा ड़ेरा है ।
गली के मोड़ पे जिस दम मिले मसीहा थे
उन्ही के सामने तो, कत्ल हुआ मेरा है ।
न खुश हो लाश पे, झुकते सियासी लोगों से
कफ़न से वोट बनाने को, सबने घेरा है ।
गमों का जहर लिये दिल में, नाचते हैं हम
नचा रहा है हमें ,वक्त वो सपेरा है ।
न हो मगरूंर कली, अपने रूंप और रस में
चमन में हर तरफ़, भौंरों का ही बसेरा है ।
तूं आजकल के भिखारियों से न डर 'जानी '
दिन का दानी ही, यहां रात का लुटेरा है ।