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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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गिरो, मगर प्यार से....

देश आजकल गिरने में ओलंपिक पदक जीतने की होड़ में लगा है। हमारे देश का हर तबका गिरने में चैम्पियन बनना चाहता है। सभी गिरने में एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं। वैसे गिरे तो प्रिंस थे। वो भी गड्ढे में। जिसके लिए टीवी से लेकर अख़बार वाले तक दिन रात एक कर दिये थे। तब पहली बार मुझे भी गिरने के महत्व का पता चला था। लेकिन आजकल के बच्चे तो हाथ में मोबाइल और गूगल बाबा के साथ पैदा होते हैं। इसलिए उन्हें बचपन से ही सब पता होता है। इसलिए आजकल आए दिन बच्चे किसी न किसी खड्डे में गिरते ही रहते हैं।

जब लोगों को गिरने के महत्व का पता नहीं था, तब भी लोग उतने ही चाव से गिरते थे, जितने कि आज गिर रहे हैं। मोहतरमा लैला के प्यार में बेचारे मजनूँ एसे गिरे थे कि आज तक लोग उनके गिरने की मिशाल देते हैं। हालांकि जवानी में प्यार में गिरना आम-बात है। राहत इंदौरी जी ने फरमाया है कि- जवानियों में, जवानी को धूल करते हैं। जो लोग भूल नहीं करते, भूल करते हैं। लेकिन आजकल बड़े सारे लोग बुढ़ापे में भी यह भूल बड़ी शान से करने लगे हैं। कुछ लोग तो जवानी में भूल करके भूल भी गए थे लेकिन बुढ़ापे में बच्चों के डीएनए ने फिर से याद करा दिया।

हमारे यहाँ गिरने को बहुत ही शायराना अंदाज में सलाम किया जाता है। किसी शायर ने गिरने के महत्व पर इस तरह रोशनी डाली है कि- गिरते हैं शह-सवार ही, मैदाने जंग में। वो तिफ्ल क्या गिरेंगे, जो घुटनों के बल चलें। यानि कि गिरना हमारे देश में जिंदादिली की निशानी है। जो जितना गिरता है, या जितना गिरा हुआ होता है, उतना ही बड़ा शह-सवार या लड़ाकू वीर होता है। चुनावों के टाइम तो जो जितना ही गिरता है, या दूसरों पर जितना ज्यादा कीचड़ गिराता है, वो वोटों में उतना ही उठता चला जाता है। क्योकि, जनता गिरने वाले को शहसवार समझ लेती है और लोकतंत्र में गिर जाती है।   

वैसे हमारे देशवासी गिरें या ना गिरें, लेकिन सवार बनकर भारतीय सड़कों पर निकलते ही, जरूर गिरते हैं। क्योंकि हमारी सरकारों ने सड़कें ही इतनी गड्ढेदार बनाई हैं, कि साईकिल और मोटरसाइकिल सवार तो अपने को शह-सवार ही समझता है, और कार वाले को तिफ्ल, जो गड्ढों में गिर तो नहीं सकते, लेकिन सीट बेल्ट बाँधकर गड्ढों में सोना-बेल्ट से तेज पेट कि चर्बी घटा सकते हैं। नगरपालिकाओं की कर्मठता से तो बरसात के महीनों में सड़कों पर नाव भी चलाने का लुत्फ उठा लेते हैं। सरकारें हाइवे, सड़के बनवाकर पहले जनता को रोड़ पर लाती हैं, फिर सड़कों में इतने डिजाइनर गड्ढे बनवाती हैं की जनता उसमें गिरने के मोह को छोड़ ही नहीं पाती।

हालांकि केवल जनता ही गड्ढों में नहीं गिरती है। कभी-कभी तो कुछ चीजें, खुद-ब-खुद जनता पर गिर जाती हैं। जैसे आए दिन महँगाई की बिजली तो जनता पर गिरती ही रहती है। वैसे बिजली तो हुस्न की भी गिरती है। लेकिन उस बिजली को तो सभी अपने ऊपर गिराना चाहते हैं। लेकिन लोग महँगाई-भ्रष्टाचार की बिजली गिरने से ज्यादा परेशान होते हैं। वैसे पाँच साल बाद चुनाव भी जनता पर गिरते ही रहते हैं। कभी वैट, कभी जीएसटी, सेस के नाम पर तरह-तरह के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष टैक्स जनता पर गिरते ही रहते हैं। नसबन्दी और नोटबन्दी भी जनता पर गाज बनकर गिर ही चुके हैं।

वैसे हमारे देश की जनता ही नहीं गिरती, उसके नुमाइन्दे भी कम गिरे हुये नहीं होते। लोगों का तो यह मानना है कि नेता लोग गिरने और गिराने में माहिर होते हैं। कभी सरकार गिरा देते हैं, कभी टूजी-कोयले में खुद गिर पड़ते हैं। कभी बोफ़ोर्स- राफेल में गिर पड़ते हैं। हालांकि गिरी हुई सरकार को उठाने के लिए तो सीबीआई है। लेकिन जनता को तो केवल भगवान के ही उठाने का सहारा है।

आजकल जो चीज खूब गिरकर अपना बैंक बैलेन्स जमकर उठा रही है, वह है मीडिया। सुबह शाम, हिन्दू-मुस्लिम करके जनता को सांप्रदायिकता में गिराती रहती है। और जब दंगे होते हैं, हिन्दू-मुस्लिम एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, तब घड़ियाली आँसू बहाती है। जनता पर चाहे जितनी परेशानियाँ गिरे, लेकिन गिरी हुई मीडिया उसे उठाने की बजाय, सरकार से सवाल पूंछने की बजाय उसके कदमों में गिरकर, हिन्दू-मुस्लिम की कांव-कांव करता रहता है। जनता की समस्याएं उठाने की बजाय, जनता पर सर्वे पर सर्वे गिराता रहता है।

सब तरफ गिरने के माहौल को देखकर, आजकल कुछ निर्जीव चीजें भी बहुत गिरने लगी हैं। आजकल बड़े-बड़े लोग जिसके गिरने से परेशान हैं, वो है रुपया। रुपया गिर रहा है....। अरे आप ये ना समझिए कि रुपया गिर रहा है और उठाकर जेब में भरना है। वैसे गिरते हुये रुपये को उठाकर जेब में भरने के लिए, कभी-कभी खुद को रुपये से भी ज्यादा गिराना पड़ता है।

यहाँ बात हो रही है रुपये की कीमत गिरने की। वो भी डालर के मुकाबले। और जब कीमत गिर रही है, तो क्या खूब गिर रही है। देखने वालों को शह-सवार के गिरने वाल सीन याद आ रहा है। कहाँ तो स्किल इण्डिया, मेक इन इण्डिया, नोटबन्दी और जीएसटी से देश, तरक्की की चौकड़ी भर रहा था, न्यू-इण्डिया बन रहा था, कहाँ रुपया धड़ाम हो गया। ये भी कोई बात हुई? लेकिन इतना जरूर है कि, मनमोहन सिंह के समय में जो रुपये का गिरना देशद्रोह था, सरकार का  इकबाल गिरने का प्रतीक था, नरेन्द्र मोदी काल में वही रुपये का गिरना, देशभक्ती हो गया है।

देशद्रोही कांग्रेस सत्तर साल में रुपये को सत्तर रुपये प्रति डालर तक ना गिरा पाई, लेकिन प्रधान सेवक की अथक सेवा से चार साल में ही यह कमी पूरी हो गयी। जब सरकार गिरने लगती है तो सरकार को तो सीबीआई सहारा दे देती है, लेकिन रुपये के गिरने को तो आरबीआई भी नहीं संभाल पा रही है। अब चूंकि आजकल रुपए का गिरना भी देशभक्ती है और शाइनिंग इण्डिया के समान है, लेकिन फिर भी रूपय्या महारानी से निवेदन यही है कि, गिरो, मगर प्यार से.. क्योंकि तुम कितना भी गिर जाओ, परंतु इतना कभी नहीं गिर सकती, जितना तुम्हारे लिए लोग गिर सकते हैं।

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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