जैसे शादी ब्याह का दिन नजदीक आते ही वर-कन्या के घर सजने लगते हैं, और शादी ब्याह के बाद सब पहले जैसा हो जाता है, उसी तरह सितंबर शुरू होते ही सभी सरकारी विभागों के राजभाषा विभाग के दफ्तर सजने- सँवरने और चहकने लगते हैं। जनवरी के हैप्पी न्यू ईयर तथा फरवरी के वेलेंटाइन डे के बाद सितंबर में जाकर पता चलता है कि भारत की राजभाषा हिन्दी है। और अक्तूबर तक आते आते, हिन्दी उसी तरह गायब हो जाती है , जैसे विधवा के माथे से बिंदी।
हिन्दी दिवस हो और स्कूल कालेज,सरकारी संस्थाओं में इसका जश्न ना मनाया जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे भी, जश्न का मजा भी वही ले सकता है, जिसके पास उसका अभाव हो। अब रोज-रोज हिन्दी का प्रयोग करने वाला जश्न तो मनाने से रहा! हाँ कभी कभार हिन्दी पर एहसान करके, टेस्ट बदलने के लिए, उसे बोलने और लिखने वालों के लिए जरूर जश्न की बात है।
पूरी दुनिया में एकमात्र हिन्दी ही एसी भाषा है, जिसे लोग अपनी राजभाषा होने के बाद भी बड़े गर्व से कहते हैं कि मुझे हिंदी नहीं आती। मैं हिंदी अखबार नहीं पढ़ता। भारतीय भी एक-दूसरे को 'हिंदीवाला' कहकर टोंट मारते हैं। अब ये हिंदी भाषा की उदारता ही है कि ये अपने ही लोगों से अपना मज़ाक उड़ाने की इतनी छूट देती है और अपमान सहती है।
यह भाषा सिर्फ अपना ही अपमान नहीं सहती, बल्कि बड़े बड़े काले अंग्रेज़ भी जब गुस्से के चरम पलों में होते हैं, तो वे भी इसी भाषा के माद्ध्यम से सामने वाले व्यक्ति से रिश्तेदारियाँ स्थापित करते हैं, और इसी भाषा में उसके पारिवारिक सदस्यों को याद करके ही चैन लेते हैं। किसी भी इंसान की असली भाषा वही होती है जिसमें वह गालियां देता है। इस लिहाज़ से देखा जाए तो हिंदी भाषा को अभी कुछ हजार साल तक और कोई हिलाने वाला नहीं। हां, ये अलग बात है कि अँग्रेजी में गालियां आदमी सिर्फ देशी पीकर ही दे पाता है।
सितंबर के शुरुआती दो सप्ताहों तक हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाता है। यहां तक कि जिन स्कूलों में घुसते ही कान में रेंगने लगता है, ‘नोबडी विल स्पीक हिन्दी’। एसे अँग्रेजी स्कूलों में भी हिन्दी मंथ मनाने लगते हैं, और इनमें हर साल एक दिन ‘हिंदी डे’ भी मनाया जाता है। इसे हिंदी दिवस भी कहते है। आप इसे हिंदी का हैप्पी बर्थ डे, सालगिरह, जन्म दिवस जो चाहें कह सकते हैं। साल में सिर्फ इसी दिन हिंदी की खोज-बीन होती है। छोटे मोटे साहित्यकारों से लेकर बड़े बड़े सरकारी संस्थान तक, उस दिन हिन्दी को ढूँढने के लिए जासूस जीरो जीरो सेवेन, बन जाते हैं।
लेकिन हिन्दी भी कम नहीं है, लोग उसको ढूंढते रहते हैं और वो है कि आजादी के सत्तर सालों के बाद भी आसानी से किसी के हाथ नहीं लग रही है। हिंदी पखवाड़े के पकौड़े अभी ठंडे भी नहीं हुये होते, हिन्दी दिवस के भाषण अभी ठीक से रटे भी नहीं जा पाते हैं कि वह फिर से भाग निकलती है। और बेचारे सरकारी अफसरों से लेकर सरकारी खर्चे पर पलने वाले बुद्धिजीवी तक फिर से उसका पीछा करने लग जाते हैं।
साल भर हिन्दी खोजने वाले जासूसों से बचती फिरती हिन्दी, आखिर हिन्दी दिवस पर इनके हाथ लग ही जाती है। फिर क्या, उसको हिरासत में लेकर तुरंत हिंदी दिवस पर हो रहे सरकारी-गैर सरकारी समारोहों में वक्ताओं के सामने पेश कर दिया जाता है। और भाषण देने वाले तुरंत हिंदी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं कि हे हिंदी, तुम्हारी हालत बहुत खराब है, तुम्हें फौरन बुद्धिजीवियों द्वारा संचालित भाषा के किसी दवाखाने में भर्ती कराना पड़ेगा।
फिर भाषणों में पानी पी- पी कर या तो अंग्रेजी को कोसा जाता है, या छाती पीट -पीट कर हिन्दी की दुर्दशा पर करुण क्रंदन की रस्म निभाई जाती है। कुछ स्वनाम धन्य हिन्दी प्रेमी इसे हिन्दी की ‘बरखी’ समझकर मनाते हैं। तो कुछ हिन्दी साहित्य में अपना नाम चमकाने का सुअवसर समझकर इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। हिन्दी पखवाड़े के दौरान हिन्दी प्रेमियों का वश चले तो अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई भी हिन्दी में ही करवाएँ। हिन्दी में ही खाएँ, हिन्दी में ही पिये। ये अलग बात है की पीने में अंग्रेजी को तरजीह देते हैं।
वैसे पीने का साहित्य से बहुत ही गहरा नाता है। देशी पीकर आदमी अंग्रेजी बोलता है, और अंग्रेजी पीकर हिन्दी समेत सभी भाषायें बोल सकता है। वैसे भी हमारे देश में, होश में हिन्दी बोलता ही कौन है? मिलते ही शुरुआत के एक दो वाक्य धुआंधार अंग्रेजी से शुरू होता है और तीसरे चौथे वाक्य तक जाते- जाते अपनी औकात यानी हिन्दी पर आ जाता है।
हाँ तो बात हो रही थी हिन्दी पखवाड़े की। इन दिनों जितना नामी हिन्दी का साहित्यकार होता है, उतनी ही दूर विदेश में हिन्दी की सभाएँ करके हिन्दी को बढ़ाता है। जैसे छोटे और मझोले टाइप साहित्यकार सूरीनाम जाकर हिन्दी पखवाड़ा मनाते हैं, बड़े साहित्यकार अमेरिका या लंदन जाकर। लेकिन किसी की क्या मजाल कि दिल्ली में एसे सम्मेलन कर ले। आखिर दिल्ली वाले भूलकर भी हिन्दी का एक शब्द भी नहीं उगलते। इसलिए अटलबिहारी जैसे हिन्दी के कवि और प्रधानमंत्री भी अमेरिका में तो हिन्दी में भाषण दे लेते हैं, लेकिन दिल्ली में, ना बाबा ना ! आखिर दिल्ली में हिन्दी समझता कौन है? इसीलिए उनको अपनी कविताएँ लिखने के लिए कुल्लू मनाली जाना पड़ता था।
सभी सरकारी संस्थानों में हिन्दी पखवाड़ा बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। हालांकि सयानों में इस बात पर मतभेद है कि सरकारी पैसा फूँकने के लिए पखवाड़ा मनाया जाता है कि पखवाड़ा मनाकर पैसा फूंका जाता है। लेकिन इसे मनाना हमारा परम कर्तब्य है। एसे ही एक कार्यक्रम में मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी को पुरस्कार वितरण और समापन के लिए बुलाया गया। जोश-खरोश से कार्यक्रम मनाया गया और अंत में मुख्य अतिथि महोदय ने अपना भाषण पढ़ा और हिन्दी का अन्तिम संस्कार और बरखी, सम्पन्न हुई। भाषण इस प्रकार था:
“रेस्पेक्टेड आफिसर्स, इम्प्लाईज़, राजभाषा डिपार्टमेन्ट के सभी आफिसर्स, जेंट्स एण्ड लेडीज़। जैसा कि ‘वेलनोन’ है, कि हम आज हिन्दी पखवाड़ा ‘सेलिब्रेट’ करने ‘कलेक्ट’ हुये हैं। यह ‘अनुअल’ ‘फंक्शन’ हमें हर साल ‘सेलिब्रेट’ करना चाहिए। इससे हिन्दी की ‘ग्रोथ’ में ‘हेल्प’ होती है। हिन्दी ‘लैंगवेज़’ का ‘डेवलपमेंट’ होता है। ‘वर्कप्लेस’ में हिन्दी को ‘एक्सपैंड़’ करने में ‘हेल्प’ होती है। हमारा ‘सेल्फ रेस्पेक्ट’ ‘इंक्रीज’ होता है। हिन्दी हमारी ‘मदर टंग’ है। हमें ‘मैक्सिमम पासिबुल वर्क’ हिन्दी में करना चाहिए। हिन्दी से ही हमारी ‘सोसाइटी’ और ‘कंट्री’ का ‘प्रोग्रेस’ हो सकता है। आपने हिन्दी पखवाड़े में ‘पार्टीसीपेट’ किया, ‘प्राइज़’ लिए, यह ‘गुड’ ‘अटेम्प्ट’ है। मैं राजभाषा ‘डिपार्टमेन्ट’ का ‘थैंकफुल’ हूँ, जो मुझे ‘प्राइज़’ ‘डिस्ट्रीब्यूशन’ के लिए ‘इनवाइट’ किया। ‘थैंक्स टू आल’ । ‘थैंक्स टू राजभाषा डिपार्टमेन्ट”। इस तरह सभा सम्पन्न हुई और सभी लोग अगले पखवाड़े के जुगाड़ में लग गए।