हमारे नौजवान युवक और युवतियां, इश्क और गणित दोनों साथ साथ सीखते हैं। जब वो किसी से नजरें मिलाते हैं तो साथ साथ गणना भी करते जाते हैं। पहली नजर। दूसरी नजर। तीसरी नजर आदि। हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं कि पहली नजर में प्यार होता है। लेकिन आधुनिक शोध से यह बात पता चली है कि, चौथी नजर में जाकर प्यार होता है। पहली नजर में प्यार नहीं आकर्षण होता है। अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि आखिर प्यार –मुहब्बत जैसे विषय में शोध घुसाने या गिनती घुसाने की क्या जरूरत है। अब आदमी नजरें मिलाये कि गिनती करे। अब पहली नजर हो गयी। अब दूसरी और तीसरी। अब जाकर चौथी नजर हुई और अब प्यार होगा। ये प्यार सीखना कम, गणित में गिनती सीखना ज्यादा हो गया। शायरों ने नजर मिलने या आँख लड़ने पर क्या क्या लिख मारा, और हम लोग शोध करने में ही अटके हैं। ‘लड़ने का दिल जो चाहे, तो आँखे लड़ाइए। हो जंग भी अगर, तो मजेदार जंग हो’। ‘लोग नजरों को भी पढ़ लेते हैं। अपनी आँखों को झुकाये रखना’। मीर साहब के हिसाब से- ‘पैमाना कहे है कोई मय-खाना कहे है। दुनिया तिरी आँखों को भी, क्या क्या न कहे है।’और आजकल लोग हैं कि ‘आँखे चार’ कम, एक दो तीन चार, ज्यादा कर रहे हैं।
साहित्य में नजरों का कितना दुष्प्रभाव है, आप शायरी देख लीजिए। नजरों पर बने कुछ मुहावरों पर नजर डालिये। नजर आना, नजर रखना, नजर मिलाना, नजर फेरना, नजर डालना, नजर उठाना, नजरों से गिराना, नजर में समाना, नजरबंद करना, नजर अंदाज करना, नजरें इनायत होना, नजरों का धोखा आदि मुहावरे, नजरों के साहित्यिक दादागीरी को दिखाते ही हैं। अगर नजरों का हिन्दी अनुवाद कर लिया जाये, तो आप कि ‘आँखे खुली की खुली’ रह जाएंगी।
नेताओं के लिए चुनाव ‘आँखों का कांटा’ है, तो जनता चुनाव के लिए ‘आँखे बिछाए’ रहती है। चुनाव में जनता जिसे ‘आँखों का तारा’ बनाकर ‘सिर आँखों पर बिठाती’ है। जीतने पर वही ‘आँखे चुराने’ लगता है, ‘आँखे फेर लेता’ है। जनता की ‘आँखों में धूल झोंकता’ है, और ‘आँखें दिखाता’ है। पक्ष-विपक्ष जनता को देखकर ‘आँखें मारते’ रहते हैं और ‘आँखें चार’ करते हैं। पाँच साल तक जनता की ‘आँखे डबडबाई’ रहती हैं, नेता की ‘आँखें लग जाती’ हैं, उनकी ‘आँखों पर चरबी छा’ जाती है, तथा जनता और नेता ‘आँख मिचौली’ करते रहते हैं। वो वादे करके ‘आँखें सेंकते’ रहते हैं, और वादों के पूरा होने के इंतजार में इनकी ‘आँखें बन्द हो’ जाती हैं। अगले चुनाव तक वो जनता की ‘आँखों में गिर जाते’ हैं। जनता की ‘आँखें खुल जाती’ हैं, उसकी ‘आँखों पर पड़ा परदा हट’ जाता है। पाँच साल बाद जनता ‘आँख उठाती’ है, पुराने नेता को ‘सीधी आँख नहीं देखती’ तथा किसी और को ‘आंखो में समा’ लेती है।
खैर, बात हो रही थी पहली नजर की। तो जवानों को ‘पहली नजर’ के प्यार से जो आनन्द आता होगा, उससे कहीं ज्यादा आनन्द मुझ जैसे खूसट को ‘कोर्ट की पहली नजर’ ‘सीबीआई की पहली नजर’ और ‘सीवीसी-सीएजी की पहली नजर’ में आता है। जैसे ही कोर्ट कहती है कि पहली नजर में फलां नेता के खिलाफ आरोप सुनने लायक है। या सीबीआई कहती है कि पहली नजर में फलां नेता या उद्योगपति दोषी लग रहे हैं। या सीवीसी-सीएजी जब कहती है कि पहली नजर में इतने का घोटाला लगता है। तो मेरा दिल खुशी से झूम उठता है कि अब फलां नेता, उद्योगपति या अधिकारी को सजा मिलेगी उसके करतूतों की। लेकिन जैसे पहली नजर का प्यार स्थायी नहीं होता, वैसे ही पहली नजर के मुकदमें, केसें भी स्थायी नहीं होती। बाद में सब ‘नजरों का धोखा’ साबित हो जाता है। कोर्टें जाँच पर ‘नजर रखती’ हैं, जाँच एजेंसियां आरोपियों पर ‘नजरें इनायत’ करती हैं, सबूतों को ‘नजर अंदाज करती’ हैं, और सबूत ‘नजरों से ओझल’ हो जाता है। आरोपी भले ही हमारी ‘नजरों में गिर जाएँ’, लेकिन वो हमेशा ‘नजर उठाकर’ चलते हैं और किसी नए काण्ड पर ‘नजर डालते’ हैं। कोर्ट, सीबीआई, सीएजी अपनी पहली नजर से ‘नजर फेर लेती’ हैं और बाद में उन्हें कुछ नजर नहीं आता। आखिर प्यार भी पहली नजर से नहीं, चौथी नजर से होता है, तो सजा, पहली नजर से कैसे हो जाएगी ??