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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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सबहि नचावत – करत बगावत

पार्टी से बगावत करने वाला, कहलाता है बागी। कानून से बगावत करने वाला, होता है दागी। बगावत से आम आदमी की जिंदगी हो जाती है दूभर। नेता करें बगावत, तो उनकी किस्मत जाए सुधर। जिस पार्टी से निकले बागी। वो पार्टी हो जाती है अभागी। जिस पार्टी में मिले बागी। उस पार्टी की किस्मत जागी। कभी बुजुर्ग कहते थे कि- सबहि नचावत, राम गुसाईं। अब लोग कहते हैं कि- सबहि नचावत, बागी साईं। बागी कभी होते थे, चंबल में, बीहड़ में, बन में। अब पाये जाते हैं, संसद में, विधान सभा भवन में। चंबल के बागियों कि गोली, अपने विरोधियों को कर देती थी खामोश। संसद के बागियों कि बोली, अपनों के उड़ा देती है होश।

वैसे बागी चाहे संसद वाला हो या चंबल वाला, दोनों अपने पर जुल्म होने पर या सताने पर ही बागी बनते हैं। चंबल के बागी अपने ऊपर हुये जुल्मों के कारण बागी बनते हैं, जबकि संसद के बागी, अपनी कुर्सी पर किसी तरह की आँच आने पर बागी बनते हैं। सदन के बागियों की, हमारे यहाँ विभीषण काल से ही परम्परा रही है। इन्हीं बागियों के कारण बहुत सी सरकारें बनीं और गिरी। लेकिन बागियों की संवृद्ध परम्परा, आज तक कायम है। कुछ लोग हमेशा बगावत करके पार्टियाँ बदलते रहते हैं। या जिसकी सरकार बननी होती है, उस पार्टी में मिलने के लिए, जन-सेवा करने के लिए, बगावत करते रहते हैं।

लेकिन बगावती लोग, बड़े ही देशभक्त, जन-सेवक अंदाज में, अपनी बगावत को जनता के हित में दिखाते हैं। जब तक अपनी पार्टी में रहते हैं, जनता की याद नहीं आती। लेकिन जैसे ही उन्हें अपनी कुर्सी हिलती नजर आती है, उनकी आँखों के सामने जनता और उसके मुद्दे घूमने लगते हैं। और नेताजी सिर्फ जनता के लिए, अपनी पार्टी से बगावत कर देते हैं। एसे बगावती नेता सामान्यत: सभी पार्टियों में और सभी स्तरों पर पाये जाते हैं।

जनता के लिए बगावत हमेशा नहीं होती, बल्कि उसका एक सीजन होता है। जनहित या समाजहित, बगावत का रीज़न होता है। सामान्यतया चुनाव के चार-छह महीने पहले, बगावती उत्तेजना का कीड़ा कुलबुलाने लगता है। और चुनाव का टिकट फाइनल होते होते, बागी बनाने की प्रक्रिया भी तेज हो जाती है। दूसरा सीजन होता है जब चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा बन जाए। उस समय भी बागियों की अंतरात्मा की आवाज हुआ-हुआ करने लगती है। और जनता की सेवा के लिए (कुर्सी के लिए नहीं), देश हित के लिए (मंत्री पद के लिए नहीं) बहुत से नेता बागी बन जाते हैं।

वैसे बागी बनने की प्रक्रिया में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है मीडिया। मीडिया के सर्वेक्षण। जैसे ही मीडिया में सर्वेक्षण आने लगते हैं कि अमुक पार्टी पूर्ण बहुमत से जीतने वाली है, उतना ही उसके विरोधी पार्टी में बागी पैदा होने कि संभावना बढ़ जाती है। हालांकि केवल हारने वाली पार्टी में ही बागी नहीं पैदा होते, बल्कि जीतने वाली पार्टी में भी, जिनको लगता है कि उनका टिकट कट जाने वाला है, और वे जन-सेवा जैसे पुण्य कार्य से बंचित होने वाले हैं, वो भी तुरत बगावत कर अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में लग जाते हैं।

बेचारे भोले भाले बागियों को, बगावत के बाद यह दिब्य ज्ञान प्राप्त होता है कि वे अब तक जिस पार्टी में थे, उसने तो जनता से धोखा ही किया। जनता के लिए कुछ भी नहीं किया। जनता के लिए तो केवल वही पार्टी काम करती है, जिसमें वे अब शामिल हो रहे हैं। और दुबारा भी उन्हें यही ज्ञान प्राप्त होता है, जब वे किसी तीसरी पार्टी में शामिल होते हैं। ये पार्टी खराब है, सांप्रदायिक है, पार्टी के अंदर लोकतंत्र नहीं है, इसलिए दूसरी पार्टी में जा रहे हैं। लेकिन अब जनता पूंछेगी, पार्टी खराब है तो क्या हुआ, आपने जीतने पर जनता के लिए क्या किया? पाँच साल में आपको कब-कब जनता कि याद आयी?...

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

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