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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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जनता उम्मीद से है.... ..... ....... ( व्यंग्य)

हमारे देश में सबसे आसान काम अगर कोई है, तो वो है, जनता में उम्मीद जगाना। जनता बस तैयार बैठी रहती है, उम्मीद लगाने के लिए। बस एक- दो मुद्दे, तबीयत से उछालो। दो-चार बार गरीब-गरीबी, शोषित-पीड़ित, बैंक दिवाला- सरकारी घोटाला, मंदिर-मस्जिद, रोजगार-भ्रष्टाचार आदि का जाप करिए। वंशवाद-तानाशाही को गाली दीजिये, चाय वाले और खोमचे वाले की बात करिए, कभी जनता के दुखों पर टेसुए बहाइए, कभी विकास का घंटा बजाइए। बस फिर क्या? जनता उम्मीद से हो जाती है। पिछले सत्तर सालों से, हर चुनाव में, जनता उम्मीद से हो जाती है। और चुनाव का परिणाम आते ही उसकी उम्मीद की, भ्रूण हत्या  हो जाती है। लेकिन हमारे भाग्य विधाता, तब कोई और नई उम्मीद जगा देते हैं, और जनता फिर उम्मीद से हो जाती है।

पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 50 के दशक में चीन के साथ दोस्ती की उम्मीद, “हिन्दी-चीनी भाई भाई” कह कर जगाई। लेकिन हुआ इसका उल्टा और हालत इतने खराब होते चले गए की भारत-चीन युद्ध भी हो गया और जनता की उम्मीद टूट गयी। फिर शास्त्री जी ने “जय-जवान, जय-किसान” कहकर देश के किसानों और जवानों में उम्मीद जगाई। लेकिन अब तो हालत ये हो गई है कि, एसा कोई दिन नहीं गुजरता जब कोई किसान आत्महत्या ना करे या कोई हप्ता नहीं गुजरता जब हमारा कोई जवान शहीद ना हो रहा हो।

कभी कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ कह कर उम्मीद जगाई। जनता आज तक नहीं समझ पाई की, गरीबी किसकी हटी? कांग्रेसी नेताओं की या जनता की। हालांकि उस समय जनता अपनी गरीबी हटाने को सोचकर उम्मीद से थी। लेकिन उसकी उम्मीद पचास साल बाद भी पूरी नहीं हुई। एक बार फिर जनता की उम्मीद टूटी। इन्दिरा को हटाकर, बाबा जय प्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति, इन्दिरा हटाओ, देश बचाओ’ से जनता में उम्मीद जगाई। लेकिन इन्दिरा को हटाते हटाते खुद ही हट गए, बिखर गए और जनता की उम्मीद फिर टूट गयी। 

कभी समाजवादियों ने, “धन और धरती बंट के रहेगी, भूखी जनता चुप न रहेगी”, “जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं”, “महंगाई को रोक न पाई, यह सरकार निकम्मी है, जो सरकार निकम्मी है, वह सरकार बदलनी है”, “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” आदि कहके जनता को उम्मीद से किया था। लेकिन 95 प्रतिशत से ज्यादा जनता आजतक धन और धरती के बंटने के इंतजार में हैं। पाँच साल तो छोड़ो, अब तो सरकारें पचास साल तक फिक्स होना चाहती हैं। सौ में साठ की उम्मीद लगाने वाले अभी और 60 साल तक इसी उम्मीद में रहेंगे। 

कभी सपा-बसपा ने मिलकर जनता में यह कहकर उम्मीद जगाई कि, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्रीराम’। लेकिन सत्ता के लालच में खुद इनका मिलन ही हवा-हवाई हो गया। जनता की उम्मीद क्या टिकती। बसपा ने "चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, ना रहेगा हाथ, ना रहेगा फूल" हो या "पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा" और "हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है" से जनता में जगाई उम्मीद भी हाथी के पैरों तले ही दब गयी। 

कम्युनिस्ट नेताओं ने देश आजाद होने के बाद यह कहकर जनता में उम्मीद जगाई थी की, ‘देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है’। और बाद में, ‘लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’ कहकर जनता में उम्मीद जगाई। लेकिन देश की जनता आज सत्तर साल बाद भी 5 किलो चावल और एक किलो चना के लिए लाइन लगाए खड़ी है। जनता तब भी भूंखी थी, अब भी भूंखी है। जनता की उम्मीद तब से लेकर अब तक झूठी है।  

कभी किसी राजा ने "राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है" से जनता में उम्मीद जगाने वाले भी, जनता की तकदीर न बदल पाये। नेता और जनता सालों से वही लकीर के फकीर बने रहे। चुनावी मौसम में जनता उम्मीद से होती है, और नेताओं के राजा बनते ही जनता की उम्मीद फिर ढह जाती है। 

बीजेपी ने ‘अबकी बारी, अटल बिहारी’ से उम्मीद जगाई, लेकिन जनता अब भी मारी मारी फिर रही है। फिर कांग्रेस ने "कांग्रेस का हाथ। आम आदमी के साथ" के साथ दुबारा उम्मीद जगाई। लेकिन कांग्रेस का हाथ, जनता के गाल पर एसा पड़ा, कि जनता आज तक सहला रही है। इसी बीच अन्ना ने जनता की तमन्ना जगाई, जनता ने फिर उम्मीद लगाई। लोकपाल पाने और भ्रष्टाचार मिटाने के सपने सजाने वाली जनता, आजकल अपने देश के ही एक समूह को टाइट करने में बिजी हो गई। उसके सपनों को सच करने के लिए सपनों के सौदागर प्रकट हुये। 

"अच्छे दिन आने वाले हैं" और "बहुत हुई देश में महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार" से उम्मीद जागी। "हर हर मोदी। घर घर मोदी" से सारी निराशा भागी। महँगाई डायन को भगाने की उम्मीद ने महंगाई को डायन से दुल्हन बना दी। रोजगार पाने की आस ने बेगार कर दिया। "देश नहीं बिकने दूंगा" से, रेल, तेल, बैंक, सरकारी कंपनियाँ सब बिकने की लाइन में लग गई। जनता की कीमत भले दो कौड़ी की हो गई हो, पेट्रोल-डीजल, आलू-प्याज, तेल-आटा-चावल के दाम, सत्तर साल में पहली बार इज्जत पा सके। जनता अभी तक कनफ्यूज है कि अच्छे दिन किसके आए, नेताजी के या जनता के?  

नोटबंदी ने जनता में भयंकर उम्मीद जगाई, और जनता ने कष्ट सहा, लाइन लगाई। मंत्री जी ने कहा कि नोटबंदी का कष्ट, प्रसव पीड़ा जैसा सुखदाई कष्ट है। यानि अबकी बार जनता सही में उम्मीद से थी। लेकिन जब फोर्ब्स ने बताया कि देश भ्रष्टाचार में नंबर वन हो गया और देश में कैश, नोटबंदी के पहले जितना था उससे भी ज्यादा हो गया, तो जनता की उम्मीद का गर्भपात हो गया। उसके बाद जीएसटी ने जनता को फिर उम्मीद से कर दिया। सब गारण्टी दे रहे थे कि अबकी बार तो विकास होगा ही। लेकिन हो गया ‘तैमूर’। वो भी करीना और सैफ के यहाँ। 

जनता बेचारी तो पिछले सत्तर सालों से लगातार उम्मीद से ही रही है। कभी कांग्रेस ने जगाई कभी भाजपा, कम्युनिस्ट, सपा, बसपा या आम आदमी ने। 'आप' ने पहली बार 'शिक्षा' स्वास्थ्य की बात करके जनता में, जितना उम्मीद जगाई थी, उतना ही 'हज' और 'तीर्थ यात्रा' पे ज़ोर देकर और 'पूजा-पाठ' के दिखावे से जनता की उम्मीद में पलीता लगा दिया। 

लोग कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। लेकिन जनता के उम्मीद की हांडी बार-बार, हर चुनाव में, हर पार्टी से चढ़ जाती है। हर चुनाव में जनता में उम्मीद जागती है कि इस बार उसके मुद्दे हल होंगे। सबको समान शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था होगी। उनके बच्चों को सम्मान-जनक काम धंधा मिलेगा। लेकिन हर बार चुनाव में नई उम्मीद जागना क्या कम है। जनता की इसी उम्मीद पे ही, तो लोकतन्त्र कायम है। तो इस बार चुनाव में जनता फिर से उम्मीद से है।

 

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

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