एक दूसरे को हिंदू, मुस्लिम जला रहे हैं।
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं।
है कौन बड़ा दोषी, और कौन मसीहा है?
जब मिलके साथ दोनों, बस मुस्कुरा रहे हैं।
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं।
जिस मीडिया-पुलिस को, विश्वास जगाना था,
वो नफ़रतों की आग में, बस घी गिरा रहे हैं।
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं।
नेतृत्व छोड़ नेता, नेपथ्य में गए सब,
और चमचे, सबको धर्म की रक्षा सिखा रहे हैं।
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं।
अब दे कहाँ पे जनता, इंसाफ की दुहाई ?
इंसाफ देने वाले भी तारीख बता रहे हैं।
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं
“जानी” समझना अब तो, जनता को पड़ेगा,
बच्चों के लिए कैसा, भारत बना रहे हैं?
हम आदमी ही आदमी का, मांस खा रहे हैं।