Menu

मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

header photo

डरना जरूरी है ….(व्यंग्य)

जिस तरह देश की रक्षा में, मरना जरूरी है। काम करो या ना करो, काम का दिखावा करना जरूरी है। अपने अच्छे दिन लाने के लिए, अपनी जेबें भरना जरूरी है। ईमानदार बनने के लिए, भ्रष्टाचार करना जरूरी है। ठीक वैसे ही देश के विकास के लिए, जनता-मीडिया-संस्थानो का, सरकार से डरना जरूरी है। हमारे देश की जनता, वैसे भी डरने में नंबर एक है। अगर डरने का कोई ओलम्पिक होता, तो क्या मजाल किसी और देश की, जो उसमें गोल्ड, सिल्वर तो क्या कांस्य पदक तक जीत पाता। हमारे देशवासी ही तीनों पदक जीतते। हमारे देश में डरने का इतिहास भी है, भूगोल भी। डरने और डराने की राजनीति भी है, और अर्थशास्त्र भी।

      डरने और डराने का सदाबहार मौसम भारतवर्ष में पाया जाता है। कभी लोग डायन के नाम पर डराकर, औरतों की हत्या करके देश की जनसंख्या कंट्रोल करते हैं। कभी जनसंख्या का डर दिखाकर देश के रहनुमा, गाय के नाम पर मुसलमानों और दलितों को मारकर, मुसलमानों और दलितों को कंट्रोल करने लगते हैं। कभी दलितों का डर दिखाकर, कोर्ट से कानून खतम कर दिया जाता है। कभी कोर्ट का डर दिखाकर, सरकार कोर्ट पर शिकंजा लगाने लगती है। तो कभी सरकार का डर दिखाकर कोर्टें, मीडिया के सामने जन-अदालत लगाने लगती हैं।

      और जनता है कि नित नए-नए डर का, हर कलर, हर डिजाइन के डर का, भरपूर आनंद लेती रहती है। कभी मुंहनोचवा के डर के मजे में दो-चार लोगों को मारकर मजा ले लेती है। कभी बच्चा चोर से डरकर आते-जाते लोगों को मारकर परम आनंद की प्राप्ति करती है। कभी मंकी मैन से डरने का रसास्वादन करती है, तो कभी बाल-कटवा से डरने का सुख लेती है। इन सबसे बच गयी तो सरकार की नसबंदी और नोटबंदी से डर लेती है। लेकिन हर हाल में, हर साल में, डरती जरूर है।

      हर डरा हुआ आदमी, दूसरे को डराने के पुनीत काम में लगा हुआ है। डरी हुई जनता, सरकार को चुनाव से डराती है। चुनाव से डरी हुई सरकार, जनता को विपक्ष के घोटालों से डराती है। उनके कारनामों के आतंक से डराती है। अगर कोई सरकार के कारनामे बताने लगे, तो सरकार उसे साम-दाम-दण्ड-भेद से डराकर ही दम लेती है। राजनीतिक पार्टियाँ, हिन्दू को मुसलमान से, और मुसलमान को हिन्दू से डराती है। अगर जनता नहीं डरती, तो दंगे कराकर डराती हैं। तो विपक्ष, जनता को, लोकतंत्र के ख़तरे का डर दिखाकर डराता है।

      सरकार और विपक्ष के अलावा भी कई छुटभैये संगठन, कहीं-कहीं कुकुरमुत्तों की तरह उग कर जनता को डराते ही रहते हैं। कभी बच्चों की बस पर हमला करके, जनता को डराने का जौहर दिखाते हैं। कभी किसी अकेले निहत्थे गेरुवाधारी स्वामी को सड़क पर पीट-पीट कर, जनता को गाय-गोबर-हिन्दू ख़तरे में है, से डराते हैं। नहीं डरे तो पत्रकार तक को घर में गोली मारकर, जनता को डराने का यज्ञ पूरा ही करते हैं। समाज सुधारक-विचारक से डरे हुये ये टुच्चे किस्म के संगठन, हमेशा इनको ही डराने में लगे रहते हैं। जो जिससे डरता है, उसी को डराने में लगा रहता है।

      हमारे देश में डरने और डराने की राजनीति के साथ-साथ, अर्थनीति भी होती है। सारे बड़े-बड़े ब्राण्ड, नक्कालों से सावधान का बोर्ड लगाकर, जनता को नक्कालों से डराते रहते हैं। सेहत का डर दिखाकर खाने के सस्ते, तेल, दूध-घी, चावल दाल आदि को महंगे में बेंचकर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे कर लिए जाते हैं। किसानों के हजारों के कर्ज का डर दिखाकर, बड़े बड़े महाजनों के लाखों के कर्ज का एनपीए हो जाता है।

      बड़े-बड़े अस्पताल, डेंगू का डर दिखाकर, साधारण जुकाम-बुखार में भी लाखों जेब से ढीले कर लेते हैं। कोरोना का डर दिखाकर प्राइवेट अस्पताल, लोगों का खून चूसकर रोना भी मुश्किल कर दिये हैं। नक्सलियों का डर दिखाकर, निहत्थे गाँव वालों पर गोलियाँ चलाकर, जंगल-जमीन कार्पोरेट की जेब में धीरे से खिसका दिया जाता है। चीन-पाकिस्तान का डर दिखाकर, राफेलों का बोफ़ोर्सीकरण हो जाता है। इस तरह अर्थशास्त्र भी डराने की कला में पारंगत होने पर ही आता है।

डरने का ज्ञान हमें महाभारत और रामायण से भी मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इतना गीता का ज्ञान दिया, लेकिन वो मानने को तैयार ही नहीं हुये। उसके बाद कृष्ण ने उन्हें विकराल रुप, भयानक रौद्र रूप दिखाया, और अर्जुन झट से मान गए। रामचरित मानस में बाबा तुलसी ने कहा था, ‘भय बिनु होय न प्रीति’। यानि बिना डर के प्रेम नहीं होता। इसलिए अगर आप सरकार से प्रेम करते हैं, तो सरकार से भयभीत भी होना चाहिए, वर्ना आपका प्रेम अधूरा माना जाएगा। अगर आप अदालतों से प्रेम करते हैं तो अदालतों से डरना भी चाहिए। प्रेम में लोग प्रेमिकाओं से तो हमेशा बात-बेबात माफ़ी भी मांगते रहते हैं, चाहे गलती प्रेमिका की ही हो। लेकिन कुछ नामुराद वीरता का आभूषण ओढ़कर, डरते भी नहीं, माफी तो दूर की बात है। बाबा तुलसीदास के अनुसार, बिना भय के प्रेम हो ही नहीं सकता।

      आजकल हमारे देश के लोग आपस में इतना प्रेम करने लगे हैं कि सब एक दूसरे से डर रहे हैं। डर का या प्रेम का, तो यह आलम है, कि एक तरफ हिन्दू खतरे में हैं, के नारे लगते मिल जाते हैं, तो दूसरी तरफ इस्लाम खतरे में है, कहने वाले भी मिल ही जाते हैं। वैसे हिन्दुओं को मुस्लिमों से, और मुस्लिमों को हिंदुओं से डरने की और भी बहुत सी वजहें हैं।

      हिन्दू-मुस्लिम का एक दूसरे से डरना, दोनों के लिए बहुत लाभदायक और सस्ता सौदा है। अगर ये, एक-दूसरे से डरना बंद कर देंगे, तो इनको और भी ज्यादा भयानक, खतरों का सामना करना पड़ेगा, जो कि इनके लिए ज्यादा बुरा होगा। क्योंकि अगर हिन्दू-मुस्लिम का डर खत्म हो जाएगा तो फिर आपको देश की समस्याएँ, ज्यादा डराएंगी। फिर आपको चालीस साल में सबसे ज्यादा हो चुकी बेरोजगारी से डरना पड़ेगा। नौकरियाँ आने की बजाए, जाने का डर सताएगा। बेतहासा बढ़ती स्कूली फीस या महंगी होती शिक्षा के कारण, आनेवाली नस्लों के अनपढ़ रह जाने का डर आपको बेचैन कर देगा। सबकुछ बिककर प्राइवेट होते संस्थानों में अपने बच्चों के और आने वाली पीढ़ियों के बंधुआ मजदूर बनकर रह जाने का खौफ़ सताएगा। फिर अपनी बात कहने पर देशद्रोही कहाने का डर आपको भारी पड़ेगा। सत्ता से सवाल पूंछने या शोषित मजदूरों के साथ खड़े होने पर अर्बन-नक्सली बनाकर जेल में ठूँसने का डर सताएगा। तो इन सब खौफनाक, डरावनी चीजों से अगर बचना है तो, हिन्दू-मुस्लिम से डरना ही ज्यादा आसान है। इसीलिए कहता हूँ, जब हम खुद डरेंगे और दूसरों को भी डराएंगे। अच्छे दिन, तभी तो आएंगे।

Go Back



Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

450;460;cb4ea59cca920f73886f27e5f6175cf9099a8659450;460;d0002352e5af17f6e01cfc5b63b0b085d8a9e723450;460;f8dbb37cec00a202ae0f7f571f35ee212e845e39450;460;7bdba1a6e54914e7e1367fd58ca4511352dab279450;460;1b829655f614f3477e3f1b31d4a0a0aeda9b60a7450;460;60c0dbc42c3bec9a638f951c8b795ffc0751cdee450;460;69ba214dba0ee05d3bb3456eb511fab4d459f801450;460;6b3b0d2a9b5fdc3dc08dcf3057128cb798e69dd9450;460;f702a57987d2703f36c19337ab5d4f85ef669a6c450;460;9cbd98aa6de746078e88d5e1f5710e9869c4f0bc450;460;fe332a72b1b6977a1e793512705a1d337811f0c7450;460;0d7f35b92071fc21458352ab08d55de5746531f9450;460;427a1b1844a446301fe570378039629456569db9450;460;dc09453adaf94a231d63b53fb595663f60a40ea6450;460;7329d62233309fc3aa69876055d016685139605c450;460;946fecccc8f6992688f7ecf7f97ebcd21f308afc450;460;eca37ff7fb507eafa52fb286f59e7d6d6571f0d3

आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

400;300;133bb24e79b4b81eeb95f92bf6503e9b68480b88400;300;0fcac718c6f87a4300f9be0d65200aa3014f0598400;300;611444ac8359695252891aff0a15880f30674cdc400;300;f4a4682e1e6fd79a0a4bdc32e1d04159aee78dc9400;300;0db3fec3b149a152235839f92ef26bcfdbb196b5400;300;52a31b38c18fc9c4867f72e99680cda0d3c90ba1400;300;08d655d00a587a537d54bb0a9e2098d214f26bec400;300;6b9380849fddc342a3b6be1fc75c7ea87e70ea9f400;300;b158a94d9e8f801bff569c4a7a1d3b3780508c31400;300;a5615f32ff9790f710137288b2ecfa58bb81b24d400;300;7b8b984761538dd807ae811b0c61e7c43c22a972400;300;e1f4d813d5b5b2b122c6c08783ca4b8b4a49a1e4400;300;3c1b21d93f57e01da4b4020cf0c75b0814dcbc6d400;300;ba0700cddc4b8a14d184453c7732b73120a342c5400;300;aa17d6c24a648a9e67eb529ec2d6ab271861495b400;300;f5c091ea51a300c0594499562b18105e6b737f54400;300;e167fe8aece699e7f9bb586dc0d0cd5a2ab84bd9400;300;648f666101a94dd4057f6b9c2cc541ed97332522400;300;b6bcafa52974df5162d990b0e6640717e0790a1e400;300;bbefc5f3241c3f4c0d7a468c054be9bcc459e09d400;300;02765181d08ca099f0a189308d9dd3245847f57b400;300;76eff75110dd63ce2d071018413764ac842f3c93400;300;dc90fda853774a1078bdf9b9cc5acb3002b00b19400;300;f7d05233306fc9ec810110bfd384a56e64403d8f400;300;40d26eaafe9937571f047278318f3d3abc98cce2400;300;497979c34e6e587ab99385ca9cf6cc311a53cc6e400;300;2d1ad46358ec851ac5c13263d45334f2c76923c0400;300;321ade6d671a1748ed90a839b2c62a0d5ad08de6400;300;dde2b52176792910e721f57b8e591681b8dd101a400;300;9180d9868e8d7a988e597dcbea11eec0abb2732c400;300;7a24b22749de7da3bb9e595a1e17db4b356a99cc400;300;24c4d8558cd94d03734545f87d500c512f329073

हमसे संपर्क करें

visitor

891014

चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

400;300;6600ea27875c26a4e5a17b3943eefb92cabfdfc2400;300;acc334b58ce5ddbe27892e1ea5a56e2e1cf3fd7b400;300;639c67cfe256021f3b8ed1f1ce292980cd5c4dfb400;300;1c995df2006941885bfadf3498bb6672e5c16bbf400;300;f79fd0037dbf643e9418eb6109922fe322768647400;300;d94f122e139211ea9777f323929d9154ad48c8b1400;300;4020022abb2db86100d4eeadf90049249a81a2c0400;300;f9da0526e6526f55f6322b887a05734d74b18e66400;300;9af69a9bc5663ccf5665c289fc1f52ae6c1881f7400;300;e951b2db2cbcafdda64998d2d48d677073c32c28400;300;903118351f39b8f9b420f4e9efdba1cf211f99cf400;300;5c086d13c923ec8206b0950f70ab117fd631768d400;300;71dca355906561389c796eae4e8dd109c6c5df29400;300;b0db18a4f224095594a4d66be34aeaadfca9afb3400;300;dfec8cfba79fdc98dc30515e00493e623ab5ae6e400;300;31f9ea6b78bdf1642617fe95864526994533bbd2400;300;55289cdf9d7779f36c0e87492c4e0747c66f83f0400;300;d2e4b73d6d65367f0b0c76ca40b4bb7d2134c567

अन्यत्र

आदरणीय  कुशवाहा जी प्रणाम। कमेन्ट के लिए धन्यवाद ।
मनोज जी, अत्यंत सुंदर व्यंग्य रचना। शायद सत्ताधारियों के लिए भी जनता अब केवल हंसी-मजाक विषय रह गई है. जब चाहो उसका मजाक उड़ाओ और उसी के नाम पर खाओ&...
कुछ न कुछ तो कहना ही पड़ेगा , जानी साहब. कब तक बहरे बन कर बैठे रहेंगे. कब तक अपने जज्बातों को मरते हुए देखेंगे. आखिर कब तक. देश के हालात को व्यक्त क...
स्नेही जानी जी , सादर ,बहुत सुन्दर भाव से पूर्ण कविता ,आज की सच्चाई को निरुपित करती हुई . सफल प्रस्तुति हेतु बधाई .
तरस रहे हैं जो खुद, मय के एक कतरे को, एसे शाकी हमें, आखिर शराब क्या देंगे? श्री मनोज कुमार जी , नमस्कार ! क्या बात है ! आपने आदरणीय डॉ . बाली से...