हमारे देश में खोदने और खुदवाने की बहुत ही विकसित परम्परा रही है। विभीषण ने रावण की जड़ खोदकर राम से उसका संहार करवाया। तो मंथरा ने कैकेयी रानी को खोद-खोदकर वरदान की याद दिलाई और राम को वन भेजवाया। पहले राजा महाराजा कुएं खुदवाया करते थे, तो आजकल अपराधी लोग जेल खोदकर फुर्र हो जाते हैं। बाबा आसाराम के चेले उनकी जड़ खोद रहे हैं। लेकिन खोदने और खुदवाने का कार्य अनवरत रूप से जारी है।इधर एक बाबा ने सपना देखा कि एक पुराने किले के नीचे जमीन में एक हजार टन सोना गड़ा है। सरकार ने उनकी बात मानकर खुदाई शुरू कर दी। वैसे भी सरकार को तो खोदने में महारत हासिल है। कोई विरोधी हो तो सीबीआई से उसके गड़े मुर्दे एसे खुदवाती है कि जैसे कुबेर का खजाना निकलेगा। फिर आखिर जमीन के नीचे दबे इस खजाने को वह कैसे छोड़े।एक जमाने में जब तहलका नामक पत्रिका ने हथियारों में दलाली का स्टिंग करके दलालों कि जड़ खोद दी, तो तत्कालीन सरकार ने सारी मशीनरी लगाकर तहलका की एसे जड़ खोदी कि उसे अपनी जड़ जमाने में कई साल लगे। अशोक खेमका नामक अधिकारी ने जब एक नेता के रिसतेदार पर गलत दस्तावेजों द्वारा जमीन खरीदने की जाँच की, तो राज्य सरकार ने खेमका के खिलाफ ही इस बात की जाँच बैठा दी कि अपने कार्यकाल के दौरान वह बीज बेंचने का लक्ष्य पूरा नहीं कर सके थे। वैसे बात तो सही है, जो अधिकारी बीज नहीं बेंच सकता, वह देश क्या बेंच पाएगा? एसे अधिकारियों को तो तत्काल ही बर्खास्त कर देना चाहिए। खोदने का काम एकदम अलौकिक होता है। जब कभी सास-बहू का झगड़ा होता है तो दोनों एक दूसरे की एसी जड़ खोदती हैं की उसे उगने में बरसों लग जाए। कैग- विजिलेन्स हमेशा फावड़े लेकर अधिकारियों की जड़ खोदने को तत्पर रहती हैं, जैसे सारा कारू का खजाना बेचारे अधिकारियों के घर में ही मिलेगा।चुनाव में खुदाई कला का जबरदस्त इस्तेमाल होता है। जो जितना ज्यादा विरोधियों की जड़ खोद सकता है, उतना ही वह विरोधियों से आगे हो जाता है। आजकल चुनावों के मौसम में, सभी राजनैतिक दल अपने-अपने फावड़ों पर धार दे रहे हैं, जिससे विरोधियों की जड़ गहराई तक खोदी जा सके।आजकल एक नई तरह की खुदाई का ज़ोर है। जिसे मैंने नाम दिया है- ई-खुदाई। ई-खुदाई, घर बैठे मोबाइल, टैबलेट, लैप-टाप या कंप्यूटर से होती है। इन हथियारों से आप फेशबुक या ट्विटर के जरिये अपने विरोधियों की जड़ खोद सकते हैं। इस बीच कुछ लोग एसे भी हैं, जो रेत खोद रहे हैं, नदी खोद रहे हैं। जिनकी सरकार में ज्यादा पहुँच है, वे कोयले की खानें खोद रहे हैं। और जब भी कोई ईमानदार अधिकारी इनकी जड़ें खोदने की कोशिश करता है, सारे मिलकर उसको ही खोदकर दफन कर देते हैं। कोई हवाला को खोद रहा है, कोई बाबरी मस्जिद को। कोई तहलका और पेट्रोल पम्प को खोद रहा है, तो कोई टू जी, कामनवेल्थ और कोयले को खोद रहा है। कोई राबर्ट बढेरा की जड़ खोद रहा है तो कोई कल्याण सिंह की। कोई सेकुलरिज़्म की जड़ खोद रहा है कोई धर्मनिरपेक्षता की। कोई लोकतंत्र को खोद रहा है कोई संविधान को। जिन्हे कुछ नहीं मिलता वो क्रिकेट के स्टेडियम खोद कर ही संतोष कर लेते हैं।सब एकाग्रचित्त होकर खुदाई में लगे है। लेकिन इस खुदाई में दफन आम आदमी हो रहा है, जिसे लाख खोदने पर भी आजतक कर्मठ-ईमानदार नेता नहीं मिला। सालों खोदने पर भी साफ पानी, बिजली, सड़क, भरपेट भोजन नहीं मिला। इस सतत खुदाई को देखकर एक शेर याद आता है जिसे किसी पीडबल्यूडी इंजीनियर ने लिखा है कि:“आगे भी खुदा है, पीछे भी खुदा है। इधर भी खुदा है, उधर भी खुदा है। बाखुदा जहाँ नहीं खुदा है, वहाँ कल खुदा होगा”। पब्लिक को इंतजार दोनों खुदाइयों का है, कि किले को खोदने से एक हजार टन सोना निकलता है कि नहीं और इस चुनाव में नेताओं द्वारा एक-दूसरे कि जड़ खोदने पर कोई अच्छा-टिकाऊ नेता जनता को मिलता है कि नहीं।
आपकी राय
Very nice 👍👍
Jabardast
Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up
बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष
अति सुंदर
व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!
Amazing article 👌👌
व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....
Excellent analogy of the current state of affairs
#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन
एकदम कटु सत्य लिखा है सर।
अति उत्तम🙏🙏
शानदार एवं सटीक
Niraj
अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।
अति उत्तम रचना।🙏🙏
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