आदमी एक भावना प्रधान जीव होता है। उसमें भर भरके भावनाएं पायी जाती हैं, और ये भावनाएं भी बड़ी नाजुक, बड़ी भावुक, बड़ी कमजोर होती हैं। कब किस बात पर आहत हो जाएँ, पता ही नहीं चलता। बिल्कुल सावधानी हटी दुर्घटना घटी टाईप की ! भावनाएं आजकल ऐसी छुई मुई सी, नाजुक हो चली हैं कि आपने कुछ कहा नहीं कि ये आहत हुई ! कभी कभी तो लगता है कि भावनाएं आहत होने के लिये ही तैयार बैठी रहती हैं कि आप कुछ करो या बोलो और ये आहत हों। भावनाएं, आहत होने के लिये बिलकुल मरी जा रही होती हैं ! उनको बस इंतजार रहता है कि, कोई आए और उन्हें आहत करे। कभी कभी तो ये लगता है कि भावनाओ को राहत ही मिलती है आहत होने से ! ये तो बस बहाना ढूंढती रहती हैं आहत होने का ! ये भावनाएं, आहत भी ऐसी-ऐसी बात पर हो जाती हैं कि आहत करने वाले तक को भी तब पता चलता कि उसने आहत कर दी है, जब उसके खिलाफ तोड़-फोड़ या एफ़आईआर हो जाती है !
कभी नासमझ लोग कहते थे कि झूठ बोले, कौआ काटे। आजकल तो सच बोलने पर भी भावनाएं आहत होकर बवाल काट देती हैं। एसा लगता है कि बापू ने तीन बंदरों वाला कांसेप्ट, भावनाएं आहत होने से बचाने के लिए ही दिया था। ना बुरा-भला देखो, न सुनो और न ही बोलो। वरना पता नहीं कब किसकी भावना फूट जाए और वो आके आपको कूट जाये। यदि चोरी के खिलाफ कुछ कहोगे तो चोरों की भावनायें आहत हो जाएंगी। यदि बलात्कार के खिलाफ कुछ कहोगे- लिखोगे तो बलात्कारियों की भावनायें आहत हो जाती हैं। यदि धर्म के नाम पर जारी कुरीतियों, अनीतियों या अंधविश्वास के खिलाफ बोलोगे- लिखोगे तो धार्मिकों की भावनाएं आहत हो जाती हैं। फिर आदमी बोले तो बोले क्या, करे तो करे क्या? आजकल दूसरों की भावनाएं ना भड़क जाएँ, इसलिए अपनी भावनाओं को 'हैंडल विथ केयर' के सूत्र वाक्य के अनुसार कंट्रोल करना पड़ता है।
भावनाएं इतनी भी भावुक नहीं होती कि हर गलत चीज पर आहत हो जाएँ। ये पूरा गणित लगाती हैं। बाकायदा सत्ता या विपक्ष से परमिशन लेकर ही, आहत होने के लिए मुद्दे चुनती हैं। ये जनता के किसी भी मुद्दे पर कभी आहत नहीं होतीं। बल्कि ये भावनाएं आहत होकर, जनता के गुस्से, उसकी भड़ास, उसकी परेशानियों से उसे राहत दिलाती हैं। पेट्रोल 110रु लीटर हो या सरसों तेल 220रु लीटर, टमाटर 80रु किलो हो या प्याज 60रु किलो, भावनाएं कभी आहत नहीं होती हैं। बिजय माल्या देश लूट जाये या नीरव मोदी, भावनाओं के कान पर जूं नहीं रेंगती। रोज-रोज गोडसे के गुणगान और महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू या स्वतंत्रता सेनानियों के अपमान पर भी भावनाएं कुम्भकर्णी निद्रा में पड़ी रहती हैं। गाड़ी खरीदने पर लाखों का रोडटैक्स देने के बाद भी प्रति किलोमीटर 2 रु का टोल टैक्स देकर भी भावनाएं आहत नहीं होती। हत्यारों - बलात्कारियों के समर्थन में रैलियाँ निकालने पर या जाति-धर्म के नाम पर किसी की हत्या करने पर भी भावनाएं आहत नहीं होती।
लेकिन जैसे ही कोई कामेडियन कोई हंसी या व्यंग्य करता है, चिकोटी काटता है, तब मुई भावनाएं तुरंत आहत हो जाती हैं। कोई नेता- मंत्री को उसके वादे याद दिला दे, तो नेताजी के समर्थकों की भावनाएं तुरंत आहत हो जाति है। किसी गाने पर, किसी फिल्म पर तो भावनाएं आहत होती ही रहती हैं। जाति धर्म का सताया हुआ यदि जाति-धर्म के बारे में सच बोल दे तो तुरंत लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं। इस तरह से भावनाएं आहत होने के बड़े सारे फायदे होते हैं। महत्वहीन मुद्दों पर भावनाएं आहत होने से जनता असली मुद्दों को भूल जाती है। फिल्म से भावनाएं आहत होने पर, आदमी को बेरोजगारी - महंगाई से राहत महसूस होने लगती है। हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर भावनाएं आहत होने पर महंगी पहुँच से बाहर शिक्षा, बेकार स्वास्थ्य ब्यवस्था से राहत मिल जाती है, नेता को भी जनता को भी। महंगाई-भ्रष्टाचार-बेगारी आदि से रोजमर्रा जिंदगी की बुरी होती हालत से, गाने-हंसी मजाक-चुटकुलों आदि से आहत हुई भावनाएं बहुत राहत देती हैं। इस तरह आहत भावनाएं, परेशान लोगों को बड़ा राहत देती हैं। यानि आहत है तो राहत है..