मार्च के पहले हफ्ते में, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का दिल्ली के एक प्रसिद्ध कालेज में ब्याख्यान होता है। पूरे महीने इलेक्ट्रानिक मीडिया उस ब्याख्यान को ब्याख्यायित करती रहती है। मोदी का ये विज़न है, मोदी जी की अमुक मुद्दे पर अमुक राय है। अप्रैल के पहले हफ्ते में, राहुल गांधी, सीआईआई में भाषण देते हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया, तरह तरह से उस भाषण का पोस्टमार्टम करना शुरू कर देता है। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में पुन: नरेंद्र मोदी फिक्की के महिला प्रकोष्ठ में भाषण देते है, इलेक्ट्रानिक मीडिया फिर शुरू हो जाता है उनकी एक एक लाइन का पोस्टमार्टम करने। दर्शकों को भी मजा आता है।
हर चैनल पर एंकर अलग अलग हावभाव के साथ भले होते हैं, लेकिन मुद्दे वही राहुल या मोदी या राहुल बनाम मोदी। क्या मीडिया ने मान लिया है कि अगर भाजपा कि सरकार बनी तो मोदी, या कांग्रेस कि सरकार बनी तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे? क्या मीडिया राहुल और मोदी को प्रोजेक्ट कर रही है? क्या मीडिया, ब्यक्ति पूजा से अपना कारोबार करना चाहती है? देश के अन्य मुद्दे, समस्याएँ उसके लिए गौड़ हैं?
इस तरह के बहुत से सवाल दिमाग में उभरते है। क्या मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है? क्या पार्टियों में ब्यक्ति पूजा कम थी, जो चैनलों ने भी ब्यक्ति पूजा शुरू कर दी? मीडिया आज सिर्फ ब्यवसाय बन गया है। उसे सिर्फ मुनाफा चाहिए। मुनाफा, चाहे खबरें दबाने से हो या खबरें दिखाने से। बिजनेस मैनेजमेंट से ही मीडिया चल रही है। जिसमें कम लागत से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना ही मीडिया का मुख्य उद्देश्य बन गया है।
देश के दूर दराज क्षेत्रों से खबरें लाने की लागत ज्यादा है, इसलिए स्टूडियो के आस-पास कि ख़बरों को ही दिखाना, उस पर स्टूडियों में बैठकर बहस करना, कम लागत और ज्यादा प्राफ़िट कि चीज है। इसलिए बहुत सी महत्वहीन बहसें रोज चैनलों पर दिखती रहती हैं। मध्यप्रदेश में होने वाले बलात्कार कि खबर इकट्ठा करना महंगा है, लेकिन दिल्ली-नोएडा कि खबर, उन पर बहस, कम लागत कि चीज है। बिदर्भ का सूखा उतने महत्व नहीं जितना आईपीएल में चीयर गर्ल्स के ठुमके। पानी बिजली के मुद्दे पर केजरीवाल का अनशन मीडिया के लिए महत्वहीन है, क्योकि वह रोमांच नहीं पैदा कर सकता, विज्ञापन नहीं दिला सकता। लेकिन सास-बहू और साजिश, आईपीएल की ओपेनिंग सेरेमनी, एश्वर्या राय की बेटी का नाम जानने कि खबरें अधिक फायदे वाली होती हैं।
क्या मोदी बनाम राहुल को तूल देकर, मीडिया चुनाव को द्वि-ध्रुवीय करना चाहती है? क्या क्षेत्रीय पार्टियाँ या आम आदमी पार्टी जैसी नई पार्टी के लिए राजनीति में कोई जगह मीडिया नहीं देना चाहती? किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी के विचारों से सहमत या असहमत होना दर्शक का काम है, और उसे होना भी चाहिए, लेकिन क्या मीडिया भी अपने फायदे के हिसाब से ख़बरों को प्रसारित करेगी, या जनहित की ख़बरों को प्रसारित करेगी? सोशल मीडिया पर किसी ब्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री बनाने की कैम्पेन तो चल सकती है, क्योंकि उसमें समान विचारों वाले सोशल मीडिया के मित्र एक दूसरे को अपनी राय बताते हैं, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया को निस्पक्ष होकर सभी उम्मीदवारों के बारे में खबरें देनी चाहिए, चाहे वह भाजपा का हो, कांग्रेस का हो, सपा या बसपा का हो, या फिर आम आदमी पार्टी का हो।
मनोज जानी
09.04.2013