यूं तो हमारे सेवक राम जी में बचपन से ही समाज सेवा का कीड़ा कुलबुलाता था। लेकिन ज्यों ज्यों वह बड़े होते गए, समाज सेवा का कीड़ा भी बड़ा होता गया। छोटे थे तो लोगों से हजार दो हजार झटक कर उन्हें मोह माया के चंगुल से मुक्ति देते थे। थोड़ा बड़े हुये तो सरकारी चीजों को अपना समझकर अपनाते रहे। कभी सरकारी जमीन को अपना बना लिया कभी सरकारी कोटे के अनाज और चीनी- तेल को अपना बनाकर बाकी गाँव वालों को इनके सेवन से मुक्ति दिलाने लगे। लेकिन इतने से सेवक राम जी का क्या होता? ऊपर से इस तरह से उनकी इज्जत भी घट रही थी। लोग उन्हें आदर भी नहीं देते थे। सेवक राम जी भी कच्चे खिलाड़ी थोड़े थे, बड़े होने के साथ उनकी बुद्धि भी बड़ी हो गयी थी। आखिर वे मंत्री देशभक्त जी के पुत्र थे। उनके पिता भी बहुत होशियार और चालाक थे।
एक दिन सेवक राम जी ने अपने पिता जी से अपनी समस्या बताई की लोग हमें इज्जत नहीं देते। लोगों की हर चीज को हम अपना समझते हैं, लोगों को अपना समझते हैं, परंतु लोग हमें अपना दुश्मन समझते हैं। हमें सम्मान नहीं देते। पिताजी आखिर पिता ठहरे। बोले, बस इतनी सी बात है। अगर तुम लोगों का हक भी मारो तब भी लोग तुम्हारी इज्जत तो क्या पूजा भी करेंगे। सेवक राम जी को आश्चर्य हुआ। पूंछा, क्या पिताजी एसा हो सकता है कि मैं उनका हक भी मार लूँ और वे मेरी पुजा भी करेंगे? पिताजी शांत भाव से बोले, क्यों नहीं हो सकता, बस तुम्हें संगठित होकर ये काम करना होगा। मतलब एक संगठन बनाकर तुम्हें संगठित रूप से यह काम करना होगा बस।
सेवक राम जी खुश होते हुये बोले, क्या मुझे संगठन बनाने के लिए सरकारी परमिशन चाहिए। मंत्री जी बोले, बेटा यह परमिशन तो केवल नेताओं के रिश्तेदारों या अधिकारियों के रिश्तेदारों को ही मिलती है। आम लोग चाहे कुछ भी कर लें, उन्हें कोई ना कोई अड़ंगा लगाकर समाज सेवा से रोक ही दिया जाता है। सेवक राम जी ने फटाफट अखिल भारतीय स्तर का एक समाजसेवी संगठन ‘अखिल भारतीय जन सेवा संगठन’ रजिस्टर्ड करवा लिया। और समाज सेवा में लग गए।
सौभाग्यवश देश में सूखा पड गया। सेवकराम जी के संगठन को सरकार से पचास लाख रुपये सूखा पीड़ितों की मदद के लिए मिले। सेवकराम जी ने चंदे से भी लाखों रुपये इकट्ठा किए। सूखाग्रस्त क्षेत्र तक जाने के लिए बड़ी सी गाड़ी खरीद की। कुछ खाने के पैकेट और मीडिया वालों के साथ पहुँच गए सूखाग्रस्त क्षेत्र। दो-चार को खाने के पैकेट और कंबल दिये, फोटो खिंचवाए और घर आ गए।
अब इसे देश वालों का सौभाग्य कहें या सेवकराम जी का, जल्दी ही दूसरे क्षेत्र में बाढ़ आ गयी। बाढ़ क्या आई, सेवकराम जी के पास लक्ष्मी जी की बाढ़ आ गयी। सरकारी मदद और चंदे की झड़ी लग गयी। सेवक राम जी ने अपने संगठन में लोगों को बढ़ा लिया। और दिन रात समाज सेवा कम चंदा वसूली ज्यादा करने के काम में लगा दिया।
सेवक राम जी की कीर्ति बढ़ती जा रही थी। कीर्ति के साथ साथ गाड़ी, मकान, जमीन और पैसा भी बढ़ता जा रहा था। भगवान भी सेवक राम जी की समाज सेवा से प्रसन्न थे, कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी हैजा- कालरा, तपेदिक से सेवकराम जी को सेवा करने का पूरा मौका देते रहते थे। वैसे सेवक राम जी अब केवल भगवान के भरोसे ही नहीं थे। कभी विकलांगों को साइकिल या कान की मशीन के लिए, कभी गरीब बच्चों को पढ़ाने या उन्हें ड्रेस वितरित करने या छात्रवृत्ति वितरित करने के समाज सेवा में लगे ही रहते हैं। आज सभी उनकी इज्जत भी करते हैं, और वे समाज सेवा के नए नए कीर्तिमान भी बना रहे हैं। वे भगवान से यही मनाते हैं कि बस उन्हें जनता की सेवा का मौका मिलता रहे, चाहे बढ़, सूखा या कुछ नहीं तो हैजा कालरा ही हो जाए। क्योंकि उन्हें पता है, मेवा तो सेवा से ही मिलता है।