हे कलियुगी पाठकगणों, इस कलयुग में अगर कुछ सत्य है, तो वो है सिर्फ नेता और उनकी नेतागीरी। अभी-अभी बादामगिरी खाकर दिमाग पर ज़ोर दिया तो यह दर्शन समझ में आया, कि इस क्षणभंगुर संसार में नेता और नेतागीरी के अलावा, सारा जगत मिथ्या है। यह वोट मिथ्या है, वोटर मिथ्या है। जनता मिथ्या है, उसके मुद्दे मिथ्या हैं। देश मिथ्या है, लोकतन्त्र मिथ्या है। अगर कुछ सत्य है तो नेता और नेतागीरी।
नेता और नेतागीरी का आजकल एडवान्स वर्जन मार्केट में है। ‘गरीबी हटाओ’ के ‘गिंगर ब्रेड’ और ‘मंदिर-मस्जिद’ के ‘जेलीबीन’ से आगे बढ़ता हुआ ‘सेकुलरिज़्म’ तथा ‘इण्डिया शाइनिंग’ के ‘किट कैट’ को पार करके ‘विकास’ के ‘लालीपाप’ तक पहुँच गया है। बीच-बीच में ‘ब्लैकमनी’ का ‘ब्लैकबेरी’ और ‘मेक इन इण्डिया’ का ‘आईओएस’ भी दिख जाता है। हमारे नेता गण फुल अपडेटेड हो गए हैं। जनता से ‘फेस-टू-फेस’ भले ना मिलें, ‘फेसबुक’ पर हरदम आनलाईन रहते हैं। संसद में किसी भी मुद्दे पर भले ही आवाज ना निकले, सोशल साइट्स पर हर दो मिनट में ‘ट्वीटियाते’ रहते हैं। ‘ज़ेड प्लस’ में चलने वाले नेता से जनता भले ना मिल पाये, परन्तु ‘मोदी एप्प’ के जरिये उनके साथ फोटो जरूर खींच सकता है।
जैसे मोबाइल में रोज नए नए फीचर आ रहे हैं, वैसे ही नेतागीरी के भी नए नए तरीके रोज मार्केट में आ रहे हैं। कभी पदयात्रा या रथयात्रा करके जनता तक पहुँचने वाला नेता, आजकल एसएमएस, एमएमएस और रिकार्डेड सन्देश द्वारा हर मोबाइल-धारी जनता तक पहुँच रहा है। जिस तरह हर नदी-नाले को बहते हुये समुद्र में ही जाना होता है, वैसे ही हर छोटे-बड़े नेता को चुनाव से होते हुये, विधानसभा या संसद तक जाना होता है। अब ये चुनाव निगोड़ा, नेतागीरी के आपरेटिंग सिस्टम में ‘वाइरस’ की तरह होता है, जो नेतागीरी को ‘करप्ट’ या ‘हैंग’ कर सकता है। इसलिए नेताओं ने इस चुनाव के वाइरस को जीतने के लिए बहुत से ‘एन्टी वाइरस’ इजाद कर लिए हैं। जैसे जनता को सबकुछ फ्री देने के वादे, एसएमएस, एमएमएस, इश्तिहार, होर्डिंग और ओपिनियन पोल या सर्वे।
आजकल चुनाव जीतने का सबसे आसान और कारगर उपाय है चुनाव पूर्व सर्वेक्षण या सर्वे। यूँ तो आजकल हर बात, हर मुद्दे पर न्यूजचैनल और न्यूजपेपर वाले सर्वे कराते रहते हैं। जैसे कि श्रीमती ओबामा को भारत दौरे के समय साड़ी पहनना चाहिए या नही? हिंदुओं को चार बच्चे पैदा करना चाहिए या दस? इस तरह के हर छोटे बड़े, जायज-नाजायज मुद्दे पर एसएमएस मंगाकर सर्वे कराते रहते हैं। लेकिन जैसे, ‘दुल्हन वही, जो पिया मन भाए’ वैसे ही ‘सर्वे वही, जो नेता कराए’।
तो आजकल चुनाव में, हर नेता सर्वे कराता है कि कौन सी पार्टी जीत रही है। और हर सर्वे में यही निकलता है कि सर्वे करवाने वाली पार्टी ही जीतेगी। बीजेपी के सर्वे में बीजेपी पूर्ण बहुमत पाती है तो ‘आप’ के सर्वे में ‘आप’ पूर्ण बहुमत पाती हुई पार्टी होती है। कांग्रेस के सर्वे में कांग्रेस दो तिहाई सीटें जीतते हुए पायी जाती है। कोई सर्वे सबसे पापुलर नेता को दिखाता है, कोई सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री- प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को। कोई सर्वे वोट के पर्सेंटेज को दिखाता है तो कोई सीटों के बँटवारे। सभी सर्वे हर पार्टी के हिसाब से आँकड़े दिखाते हैं।
रोज-रोज के इन तरह-तरह के सर्वे को देखकर, वोटर-मयी जनता ‘कन्फ़्यूजियाई’ हुई रहती है कि किस पार्टी को वोट दे? कौन से सर्वे को सही माने? अगर एक सर्वे को सही मानकर वोट दिया और दूसरा सर्वे सही निकला तो? इस सर्वे के भव-सागर से निकलने का कोई नहीं सहारा। सर्वे का मारा, वोटर बेचारा।