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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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दिल्ली के बन्दर... (ब्यंग्य)

विद्वान लोग कहते हैं कि हमारे पूर्वज बन्दर थे। यानी बन्दरों से पैदा हुआ है आदमी । विज्ञान में बाबा लेञ्ज ने बताया था कि जो चीज जहाँ से पैदा होती है, उसी का विरोध करती है। आजकल दिल्ली के लुटियन जोन से बन्दरों को भगाने के लिए लंगूरों की जगह आदमी लंगूरों की आवाज निकालकर बन्दरों को डराकर भगा रहे हैं।

      यह बात अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए एक सनसनीखेज और दिलचस्प खबर है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को शायद उपरोक्त बातों का ज्ञान नहीं है, इसीलिए उनको आश्चर्य हो रहा है। खासकर दिल्ली और दिल्ली में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के बन्दरों और उनके गुणधर्म के बारे में कुछ भी  पता नहीं है अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को। हम आपको बताते हैं बन्दरों के महत्व के बारे में।

      बन्दरों का बहुत ही साहित्यिक और राजनीतिक महत्व है। परम ज्ञानी लोग कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इसलिये साहित्य में बन्दरों का दखल देखकर उनकी सामाजिक और राजनीति हैसियत का पता चलता है। बन्दरों के ऊपर बने निम्नलिखित मुहावरे इस बात के गवाह है।

      “बन्दर बांट” कभी बन्दर लोग करें या ना करें, हमारे समाज में, राजनीति में, पावरफुल लोग हमेशा बंदरबांट में लगे रहते हैं। औरतें एक दूसरे कि साड़ी और गहने की, कितनी भी नकल करें, नेता एक दूसरे की कितनी भी नकल करें, “नकलची बन्दर” कहकर बदनाम बेचारे बन्दर ही होते हैं। किसी को नीचा दिखाने के लिए, बेइज्जती करने के लिए, “बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद” कहकर बन्दरों को ही चिढ़ाते हैं। भले ही किसी ने कभी बन्दरों को अदरक खिलायी हो या नहीं, मुफ्त में बेइज्जत बेचारा बन्दर ही होता है। जबकि सौ-डेढ़ सौ रुपये किलो महंगी अदरक का स्वाद लेने की हिम्मत, बन्दरों की तो क्या, आजकल के आदमियों की भी नहीं होती है।

      “बापू के तीन बन्दर” पता नहीं सही में थे या नहीं, लेकिन आजकल हमारे देश में सवा सौ करोड़ बापू के बन्दर हो गए हैं। देश में चाहे कितनी भी चोरी-डकैती-हत्या-बलात्कार-भ्रष्टाचार हो जाए, ये बापू के सवा सौ करोड़ बन्दर, आँख-कान-मुंह सब बंद रखते हैं। कभी गलती से भी इनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाते।

      कभी बन्दरों को दाढ़ी-मूंछ बनाते तो देखा नहीं गया, फिर भी “बन्दर के हाथ में उस्तरा” क्यों होता है, ये बात आजतक मुझे समझ नहीं आयी। राजनीति और समाज में लोग एक दूसरे को तरह-तरह से धमकाते हैं, डराते हैं, तो भी लोग कहते हैं कि “बन्दर घुड़की” देते हैं, चाहे वहां बन्दर हों या नहीं, घुड़की देने का आरोप बेचारे बन्दर पर ही जाता है।

      एक और मुहावरा जो है तो वास्तव में बेचारे बन्दरों के लिए, लेकिन उसका प्रयोग राजनीति में खूब होता है। जब भी कोई नेता किसी पार्टी को जितवाता है, लेकिन मंत्री कोई दूसरा बन जाता है, तो कहते हैं कि “नाचे-कूदे बन्दर, माल खाये मदारी”। इसको अपने हिसाब से आप कहीं भी फिट कर सकते हैं।

      ये तो था बन्दरों का साहित्य पर दबदबा। वैसे दिल्ली में कई प्रकार के बन्दर पाये जाते हैं, जो लुटियन जोन, संसद भवन, विधान सभा भवन, राष्ट्रपति भवन से लेकर पूरी दिल्ली पर कब्जा जमाने के लिए दिन-रात दम लगाए रहते हैं। इनमें से जब कुछ बन्दर संसद भवन या विधान सभा भवन तक पहुँचने में सफल हो जाते हैं तो वे “बन्दर बांट” शुरू कर देते हैं।

      जो बन्दर वहाँ पहुँचने में असफल रह जाते हैं, वे पहुँचने वाले बन्दरों को देश के लिए घातक बताने लगते हैं, और कहते हैं कि “बन्दर के हाथ में उस्तरा” आ गया है। जबकि सफल बन्दर, दूसरों को “बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद” कहकर चिढ़ाते हैं। दोनों तरफ के बन्दर एक दूसरे को बात-बात पर “बन्दर घुड़की” भी देते रहते हैं। इस तरह से यह नहीं पता चलता कि आदमी पहले बन्दर था और अब आदमी है,  या पहले आदमी था और अब बन्दर है? आप क्या कहते है?

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

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स्नेही जानी जी , सादर ,बहुत सुन्दर भाव से पूर्ण कविता ,आज की सच्चाई को निरुपित करती हुई . सफल प्रस्तुति हेतु बधाई .
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