आजकल हमारे नेता एक से बढ़कर एक सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करने में लगे हुये हैं। एक ने कहा, पब्लिक 5 रुपये में खाना खा सकती है। दूसरे ने कहा- पब्लिक 12 रुपये में खा सकती है। उसके बाद एक-एक कर बहुत से नेताओं ने अलग-अलग खाने के रेट का खुलासा किया। तब जाकर मुझ जैसे अज्ञानी को ये पता चला की पब्लिक खाना भी खाती है। वैसे पिछले साल जब इन्हीं नेताओं ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था की आजकल पब्लिक ज्यादा खाने लगी है, इसी वजह से महँगाई बढ़ी है, तब थोड़ा शक जरूर हुआ था कि शायद पब्लिक भी खाने लगी है। लेकिन इस साल खाने के रेट को जानकर अब तो लगने लगा है कि पब्लिक भी खाती है।
यूँ तो खाने का कापीराइट केवल नेताओं के पास है। संसद की कैंटीन में दो रुपये मे चिकन बिरयानी से लेकर हर सौदे में दलाली-कमीशन-घूस सब खाने का सर्वाधिकार उन्हीं के पास सुरक्षित है। अब जनता ने भी खाना शुरू कर दिया। कहीं जनता ज्यादा ना खा ले, इसीलिए उनके खाने का रेट तय करना बहुत जरूरी था। इसलिए आजकल सभी नेता जनता के खाने का रेट तय करने में लगे हुये हैं।
पहले जनता गम खाती थी, नेताओं के वादों से ही उसका पेट भर जाता था, लेकिन जनता का दिल माँगे मोर। आजकल वह बिजली-पानी-सड़क माँगने लगी है, साइकिल-लैपटाप माँगने लगी है। तो नेता भी क्या करें, कल अगर जनता हर कमीशन में पर्सेंटेज माँगने लगी तो? इसलिए सरकार उनके खाने का अलग से इंतजाम कर रही है। उनके खाने की भी सेक्यूरिटी कर रही है, फूड सेक्यूरिटी कानून लाकर। जिससे जनता अपना हिस्सा लेकर चुप रहे। और उन्हें खाने में कोई परेशानी ना आए।
वैसे भी खाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। सीबीआई और विजिलेन्स पीछे पड़ जाते हैं और कोर्ट फुंफकारने लगती है। आजकल लोकपाल और लोकयुक्त जैसी मिर्चें भी खाने में एसिडिटी बढ़ाती हैं। आरटीआई तो पूरा ही खाने को मिड-डे मील बना देती है, खाया तो टें बोल जाओगे। अब इन सब से बच-बचाकर खाना कोई आसान काम है। कितना जोखिम होता है, नेताओं के खाने में। और पब्लिक फ्री-फण्ड की खाना चाहती है, ये तो बहुत नाइंसाफ़ी है। इसलिए नेताओं ने जनता के खाने का रेट तय कर दिया है।
लेकिन जनता के खाने का रेट तय करने से सबसे ज्यादा हलकान-परेशान हमारे खबरिया चैनल हो रहे हैं। निकल पड़े हैं खुली सड़क पर अपना माइक ताने। 5 रूपय्या और 12 रूपय्या में, छप्पन भोग खाने। एसा लग रहा है कि नेता जो बोल देते हैं, सब सच ही होता है। बेचारे मासूम चैनल वाले, दर-दर भटक रहे हैं 5 रुपये कि थाली ढूँढने में। कम खर्चे में, बिना दिल्ली और मुंबई के बाहर गए, मसालेदार खबर तैयार करने में। इसे कहते हैं आम के आम, गुठलियों के भी दाम। कम से कम खर्चे में, भूखी जनता को भरपेट चटपटी खबरें परोस रहे हैं। जनता भी चटखारे ले लेकर मासूम रिपोर्टर को दिल्ली-मुंबई कि गलियों में 5 रुपये कि थाली खोजने पर ताली पीट रही है। देश में गरीबी का तमाशा चल रहा है 68 सालों से। गरीबी बिक रही है हर चुनाव में। गरीबी मिट रही है हर चुनाव में। गरीबी दिख रही है हर चुनाव में। गरीबी का तमाशा छिपा है, गरीब के खाने के भाव में.........