एक चुटकी चरस की कीमत आप क्या जानो पाठक बाबू? भाषणबाजों के लिए ईश्वर का वरदान होती है एक चुटकी चरस... वोटरों को रोटी-पानी भुलवाकर, भावुक मुद्दों पे मतदान होती है एक चुटकी चरस... जनता को उसकी परेशानियाँ भुलवाकर, सम्मोहित करने वाली जादू की छड़ी होती है एक चुटकी चरस.... इज्जत से जीने की चाह रखने वालों के लिए, सफाईकर्मियों के पैर धुलने जैसी घड़ी होती है एक चुटकी चरस... हर दोगले आदमी के इज्जत की ढाल होती है एक चुटकी चरस... भूंखी-बेगार जनता को छप्पनभोग के सपने दिखाने की चाल होती है एक चुटकी चरस... एक चुटकी चरस की कीमत वही जानता है जिसने, इसे कभी ली हो या किसी को दी हो।
आजकल पूरा वातावरण ही चरसमय हो गया है। कोई चरस देने में व्यस्त है। कोई चरस लेकर मस्त है। चरस आज के जमाने में कल्पवृक्ष के समान है। आदमी अगर बबूल बोता है, तो बबूल ही पैदा होता है, उगता है। लेकिन अगर आदमी चरस बो दे तो वह क्या काटेगा, यह बोने वाले और बोने की जगह पर निर्भर करेगा कि क्या उगेगा । जैसे अगर कोई भीड़ में हिन्दू-मुस्लिम की चरस बो दे, तो दंगाई पैदा होंगे। अगर आदमी शिक्षा में चरस बो दे, तो गाय से आक्सीजन निकलवाने वाले और बत्तख तैराकर आक्सीजन लेवल बढ़ाने वाले वैज्ञानिक पैदा होते हैं।
एक कवि विद्रोही थे जो आसमान में धान बोते थे। आजकल हमारे कर्मठ लोग आसमान से लेकर पाताल तक चरस बोने में लगे हुये हैं। कोई टीवी चैनल के स्टूडिओ में चरस बो रहा है, तो कोई रेडियो पर चरस बो रहा है। रेडियो और टीवी के जरिये आसमान से चरस बोया जा रहा है तो रैलियों में धरती पर भी चरस बोया जाता है। आजकल डिजिटल युग है तो, व्हाट्सप्प और सोशल मीडिया के द्वारा भी खूब चरस बोई जा रही है।
चरस के और सगे-सम्बन्धी होते हैं भांग और अफीम। ये एसे पदार्थ हैं दुनिया में, जिसे देनेवाला भी खुश होता है, तो लेनेवाला भी खुश होता है। ये इतनी मारक बूटियाँ हैं कि अगर सत्ताधारी ले ले, तो जनता का भरता बनना निश्चित है। और अगर जनता लेले, तो सत्ताधारी की बल्ले-बल्ले हो जाए । इनके प्रभाव में आकर कोई भी अभिनेता-अभिनेत्री, खुद को रील से निकलकर रीयल लाइफ का हीरो-हीरोइन समझ सकता है। फिल्म में रानी लक्ष्मीबाई का रोल करने के बाद खुद को असली लक्ष्मीबाई समझने लग सकती है। मैं तो डरता हूँ अगर किसी दिन इनके प्रभाव में आकार विवेक ओबेराय ने कह दिया कि मोदी जी गद्दी खाली करो, मैं असली मोदी हूँ, क्योंकि मैंने फिल्म में रोल किया है, या इसी तरह किसी दिन अनुपम खेर, मनमोहन सिंह जी के घर में घुस जाएँ कि आप निकलो, असली मैं हूँ क्योंकि मैंने रोल किया है, तो क्या होगा?
वैसे, इनको लेने के फायदे बहुत हैं। इसीलिए हमारे टीवी चैनल्स दिनभर चरस बोते रहते हैं। व्हाट्सप्प और फेसबुक से चरस-अफीम बांटी जाती रहती है। इससे सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि जनता अपनी सारी परेशानियाँ भूल जाती है। दम मारो दम, मिट जाए गम। अगर जनता इनका सेवन ना करे तो उसे महंगी-प्राइवेट होती शिक्षा के कारण अपने होनहारों के भविष्य की नाहक चिंता होगी। पढे लिखे बेरोजगार बिना बात ही सरकार से नौकरियाँ मांगेगे। महंगाई पे सवाल उठेंगे। नौकरियाँ छिन जाने पर लोग आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध करेंगे। एक लाइन में कहें तो सवाल करके बवाल काटेंगे। लेकिन सही समय पर, सबको खबर-बहस रूपी चरस-अफीम की सही डोज़ मिलने से सब चौचक चल रहा है ।
ये चीजें, लेने के बाद आदमी को दोहरा जीवन जीने, दोहरा मापदण्ड अपनाने, दोगला चरित्र रखने में बहुत सहूलियत हो जाती है। आईएएस अपने बच्चों को भी आईएएस बनाने / बनाने की कोशिश करने के बाद, डाक्टर अपने बच्चे को डाक्टर बनाने के बाद, बिजनेसमैन अपने बच्चों को बिजनेसमैन बनाने के बाद, वकील अपने बच्चे को वकील बनाने के बाद, जज अपने बच्चे के साथ-साथ अपने कुनबे को जज बनाने के बाद, नेता-मंत्री अपने बेटे-बेटियों से लेकर पतोहू-दामादों तक को राजनीति में सेट करने के बाद बड़े शान से कहते हैं, राहुल गांधी परिवारवाद बढ़ा रहे हैं।
नारकोटिक्स विभाग के लिए ये डिस्क्लेमर है कि मेरा गाँजा, भांग, चरस, अफीम किसी से कोई सम्बंध नहीं है, मैं तो सिर्फ साहित्यिक चरस बोने की कोशिश कर रहा हूँ, जिससे की लोग एक पल के लिए ही मुस्कुरा सकें। और साथ ही पाठकों के लिए ये डिस्क्लेमर है कि वे इसी व्यंग्य चरस से ही संतोष करें, इस पूरे व्यंग्य को पढ़ने के बाद भी मैं उनको एक चुटकी चरस की कीमत नहीं बताने वाला। राज की बात ये है कि मुझे भी नहीं पता...