लाशों पे, सियासत की फसल, बो रहा है वो ।
जलते शहर में भी, सकूँ से, सो रहा है वो ॥
किलकारियाँ भरते थे जो, आबाद गली में ,
बस्ती में अब अनाथ कहीं, रो रहा है वो ॥
जीने की तमन्ना में यूँ, मजबूर हो गया,
कंधों पे अपनी अस्थियों को, ढो रहा है वो ॥
धर्मों के सिखाने से, जो इन्सान ना बना,
तब्दील अब तो वोट में भी, हो रहा है वो ॥
गफलत ये थी, कि शहर में, इन्सान बसे हैं,
इसका भी मगर अब तो भरम, खो रहा है वो॥
अनपढ़-गरीब होके, भला क्या सिखाए ‘जानी’,
अपने लहू से, उसके ज़ख़म, धो रहा है वो ॥