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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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यूँ तो मयखाने से हम दूर बहुत रहते हैं

यूँ तो मयखाने से, हम दूर बहुत रहते हैं।
तेरे नशे में मगर, चूर बहुत रहते हैं।

हम तो फौलाद को भी, मोम बना सकते हैं,
इश्क की राह में, मजबूर बहुत रहते हैं।

उनपे जब आयी जवानी, वो खुदा भूल गए,
दौलते-हुस्न में, मगरूर बहुत रहते हैं।

हम हकीकत में भी जिंदा हैं, जमाने भर में,
हम फसानों में भी, मशहूर बहुत रहते हैं।

आप कहते हैं लगातार, गरीबी कम है,
देखो फुटपाथ पे, मजदूर बहुत रहते हैं। 

कायदे-इश्क़ के माने, वो आशिक कैसा?
यूं राहे-इश्क में, दस्तूर बहुत रहते हैं। 

तुम्हारे साथ, ख़िज़ाँ भी, बहार लगती है,
वरना मंजर सभी, बेनूर बहुत रहते हैं।

जहान जीतना, फितरत में है भले ‘जानी’,
शिकस्ते-दिल भी, मंजूर बहुत रहते हैं।

 

 

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

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