जाने क्यूँ रिश्तों पे,एतबार से डर लगता है ।
अब तो कांटों का क्या,फ़ूलों के वार से डर लगता है।
कल तक, जो जगह होती थी, इंसाफ़ का मन्दिर,
अब तो उसी मंदिर के,दरो-दीवार से डर लगता है।
कल तक के मुजरिमों को, कानून का डर था,
पर अब तो मुंशिफ़ों को, गुनहगार से डर लगता है।
हालत बना दी मुल्क की, रखवालों ने ऐसी
इस देश को अपने ही, पहरेदार से डर लगता है।
ईमान भी, इंसान भी, जज्बात बिक रहे ,
रिश्तों को बेंचने वाले, बाजार से डर लगता है।
‘जानी’ ये मुल्क अपने, पैरों पे क्या खडा हो ?
बैसाखियों पे चलती, सरकार से डर लगता है।
संसद की कुरसियों में, जागी है ऐसी भक्ती
संन्यासियों को,काशी - हरिद्वार से डर लगता है।
बैसाखियां थमाकर, जो टांग खींच ले
“जानी” को ऐसे नेक, मददगार से डर लगता है।