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मनोज जानी

बोलो वही, जो हो सही ! दिल की बात, ना रहे अनकही !!

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डर लगता है ..

जाने क्यूँ  रिश्तों  पे,एतबार  से  डर  लगता  है ।
अब तो कांटों का क्या,फ़ूलों के वार से डर लगता है।

कल तक, जो जगह  होती थी, इंसाफ़ का मन्दिर,
अब तो उसी मंदिर के,दरो-दीवार से डर लगता है।

कल  तक  के मुजरिमों को, कानून  का  डर  था,
पर अब तो मुंशिफ़ों को, गुनहगार से डर लगता है।

हालत  बना दी मुल्क की,  रखवालों   ने  ऐसी
इस देश को अपने ही, पहरेदार से डर लगता है।

ईमान  भी, इंसान  भी,  जज्बात  बिक  रहे ,
रिश्तों को बेंचने वाले, बाजार से डर लगता है।

‘जानी’ ये मुल्क अपने, पैरों पे क्या खडा हो ?
बैसाखियों पे चलती, सरकार से  डर लगता है।

संसद की  कुरसियों  में, जागी  है  ऐसी  भक्ती
संन्यासियों को,काशी - हरिद्वार से डर लगता है।

बैसाखियां थमाकर,  जो   टांग   खींच  ले
“जानी” को ऐसे नेक, मददगार से डर लगता है।

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Comment

आपकी राय

Very nice 👍👍

Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up

बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष

अति सुंदर

व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!

Amazing article 👌👌

व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....

Excellent analogy of the current state of affairs

#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन

एकदम कटु सत्य लिखा है सर।

अति उत्तम🙏🙏

शानदार एवं सटीक

Niraj

अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।

अति उत्तम रचना।🙏🙏

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आईने के सामने (काव्य संग्रह) का विमोचन 2014

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चिकोटी (ब्यंग्य संग्रह) का विमोचन 2012

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