जनता की आह यूँ ही, बेकार नहीं होती ।
केवल फतह, फरेब से, हर बार नहीं होती।
खुद पे हो भरोसा और, जज्बा बुलंद हो,
उसको किसी मदद की, दरकार नहीं होती।
घोटाले, भ्रष्टाचार तो, सुनने को तरस जाते,
गर देश में बेशर्म सी, सरकार नहीं होती।
सब साथ-साथ मिलकर, पब्लिक को लूटते,
बँटवारे में गर लूट के, तकरार नहीं होती।
सच्चाई और कर्म की, ताकत भी चाहिए,
नारों के बल पे केवल, ललकार नहीं होती।
दामन ना पाक-साफ हो, अपना तो गैर पे,
आरोप लगा करके, यलगार नहीं होती ।
सत्ता का मद भी हारेगा, ‘जानी’ निरीह से,
हाथों में जिनके कोई, तलवार नहीं होती।
जनता की आह यूँ ही, बेकार नहीं होती ।
केवल फतह, फरेब से, हर बार नहीं होती।
जनता की आह यूँ ही, बेकार नहीं होती ....
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आपकी राय
Very nice 👍👍
Jabardast
Kya baat hai manoj Ji very nice mind blogging
Keep your moral always up
बहुत सुंदर है अभिव्यक्ति और कटाक्ष
अति सुंदर
व्यंग के माध्यम से बेहतरीन विश्लेषण!
Amazing article 👌👌
व्यंग का अभिप्राय बहुत ही मारक है। पढ़कर अनेक संदर्भ एक एक कर खुलने लगते हैं। बधाई जानी साहब....
Excellent analogy of the current state of affairs
#सत्यात्मक व #सत्यसार दर्शन
एकदम कटु सत्य लिखा है सर।
अति उत्तम🙏🙏
शानदार एवं सटीक
Niraj
अति उत्तम जानी जी।
बहुत ही सुंदर रचना रची आपने।
अति उत्तम रचना।🙏🙏
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