लाचार सी , मायूस, नजर देख रही है।
मिलती जिधर मदद है,उधर देख रही है।
एक दूसरे पे थोप के, इल्जाम पे इल्जाम;
हर मुद्दे से , बचने का, हुनर देख रही है ।
कुदरत को हमने लूटा, खसोटा है हर तरफ;
अन्जाम ये, कुदरत का, कहर देख रही है ।
सौ-दो सौ के , हर्जाने को,पाकरके खुशनसीब;
अरबों के दानियों का, जिगर देख रही है ।
फन्दों पे लटकती ये, किसानों की जिन्दगी;
नेताओँ के वादों का, असर देख रही है ।
जिधर भी देखिये , मरते किसान हैं 'जानी',
मुँह फेरकर सरकार, किधर देख रही है ।