दर्द होता रहा, छटपटाटे रहे,
भ्रष्ट सिस्टम से हम, चोट खाते रहे.
फूल जन्माष्टमी पर, चढ़ाये बहुत,
फूल गुलशन के बस, मुरझाते रहे.
चंद सिक्कों ने ली, जान मासूमों की,
वो चुनावों में, अरबों लुटाते रहे.
जिसको सबने चुना, था मसीहा कभी,
मौत पे, बस वही, मुस्कुराते रहे.
झूठे दावों, बयानों, कुकर्मों से वो
दाग़ चेहरे के अपने, छुपाते रहे.
पार्टियां ना रुकीं, रैलियां ना थमीं,
सिर्फ बातों से दुःख, वो जताते रहे.
सांस थमती रही, इधर मासूमों की,
गाय, मंदिर औ मस्जिद, दिखाते रहे.
जिसको समझे थे, हर दर्द की हम दवा,
घूँट आश्वासनों के, पिलाते रहे.
ये तरक्की हुई, वो तरक्की हुई,
आँकड़े झूंठे, बस वो गिनाते रहे.
लोग मरते रहे, भूंख- बेगारी से,
सत्ता में तो सभी, आते जाते रहे.
जानी लड़ना था, मुद्दों पे, जिनको यहां,
धर्म के नाम पर, जां गंवाते रहे.
दर्द होता रहा, छटपटाटे रहे,
भ्रष्ट सिस्टम से हम, चोट खाते रहे।